Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १७६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७२ :
दर्शन आचार
अने चारित्र आचार
फागण वद १ ता. २९ – ३ – ४६ प्रवचनसारजी गाथा. १०६ ना व्याख्यानो
– टूंक सार. –

वस्तु अने सत्तामां कथंचित् अन्यपणुं छे; आखी वस्तु एक ज गुण जेटली नथी, तेम ज एक गुण ते
आखी वस्तुरूप नथी. वस्तुमां कथंचित् गुणगुणी भेद छे; आथी वस्तुना दरेक गुण स्वतंत्र छे. श्रद्धा अने
चारित्रगुण जुदा जुदा छे. चारित्रगुणमां कषाय मंद पाडे तेथी श्रद्धा गुणमां कांई लाभ थाय–एम बनतुं नथी.
केम के श्रद्धा गुणने अने चारित्रगुणने अन्यत्व भेद छे. कषायनी घणी मंदता करवी ते चारित्र–गुणनी विकारी
क्रिया छे; श्रद्धा अने चारित्रगुणमां अन्यत्व भेद छे तेथी चारित्रना विकारनी मंदता ते सम्यक्श्रद्धानो उपाय
थतो नथी; पण परिपूर्ण द्रव्य स्वभावनी रुचि करवी ते ज श्रद्धानुं कारण छे.
श्रद्धा गुण सुधरवा छतां चारित्र गुण न सुधरे, केम के श्रद्धा अने चारित्रगुण जुदा छे. रागना घटाडा
उपरथी के चारित्रगुणना आचार उपरथी जे जीव सम्यक्श्रद्धानुं माप काढवा मागे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने
वस्तुस्वरूपना गुणभेदनी खबर नथी, केम के सम्यग्दर्शनना आचार अने सम्यक्चारित्रना आचार जुदा जुदा छे.
घणो कषाय होवा छतां सम्यग्दर्शन होय अने एकावतारी होय. वळी घणो मंद कषाय होवा छतां
सम्यग्दर्शन होय नहि अने अनंत संसारी होय छे. अज्ञानीए चारित्रना विकारनी मंदता करी पण तेने श्रद्धाना
स्वरूपनुं भान नथी. पहेलांं साची श्रद्धानी खीलवट वगर कदापि भवनो अंत आवे नहि. साची श्रद्धा वगर
चारित्रनो अंश पण खीले नहि.
ज्ञानीने विशेष चारित्र न होवा छतां वस्तुस्वरूपनुं भान होवाथी दर्शन आचारमां ते निःशंक होय छे.
मारा स्वभावमां रागनो अंश पण नथी, हुं ज्ञानस्वभावी ज्ञाता ज छुं–आवी जेणे प्रतीत करी छे तेने
चारित्रदशा न होवा छतां तेना दर्शनआचार सुधरी गया छे, श्रद्धामां तेने कदापि शंका पडती नथी. ‘राग थवाने
लीधे मारा सम्यग्दर्शनमां दोष आवी जतो हशे! ’ एवी शंका ज्ञानीने होय नहि; केम के ते जाणे छे के राग थाय
ते चारित्रनो दोष छे, पण चारित्रना दोषवडे श्रद्धागुणमां मलिनता आवी जती नथी. हा, जो राग थाय तेने
पोतानुं स्वरूप माने अथवा परमां सुखबुद्धि माने तो तेने श्रद्धामां दोष आवे. साची प्रतीतनी भूमिकामां
अशुभराग थई जाय तो तेनो पण नकार करे छे अने जाणे छे के आ दोष चारित्रनो छे, ते मारी श्रद्धाने
नुकशान करवा समर्थ नथी. –आवुं दर्शनआचारनुं अपूर्व सामर्थ्य छे.
दर्शनआचार (सम्यग्दर्शन) ज सौथी पहेलो पवित्र धर्म छे. अनंत पर द्रव्योना काममां हुं कांई निमित्त
पण थई शकतो नथी, एटले परथी तो भिन्न, ज्ञाता ज छुं; अने आसक्तिना जे राग–द्वेष छे ते पण मारुं स्वरूप
नथी, ते मारा श्रद्धास्वरूपने नुकशान करवा समर्थ नथी–आवुं दर्शनाचारनी प्रतीतिनुं जे जोर छे ते अल्पकाळे
मोक्ष आपवानुं छे; अनंत भवनो नाश करीने एकावतारीपणुं करी देवानी दर्शनाचारनी ताकात छे. अने
दर्शनाचारनी प्रतीत प्रगट कर्या वगर राग घटाडीने अनंतवार बाह्यमां चारित्राचारनुं चालन करवा छतां
दर्शनाचारना अभावे तेना अनंत भव टळे नहि. पहेलांं दर्शनाचार वगर कदापि धर्म होय नहि.
परथी भिन्न निवृत्तस्वरूप श्रद्धामां मान्युं एटले तरत ज बधी रागादिनी प्रवृत्ति अने संयोग छूटी ज
जाय–एम नथी, केमके श्रद्धा गुण अने चारित्रगुणने जुदापणुं छे तेथी श्रद्धागुणनी निर्मळता प्रगट थवा छतां
चारित्रगुणमां अशुद्धता पण रहे छे. जो सर्वथा एक श्रद्धा गुणरूप ज द्रव्यने मानवामां आवे तो श्रद्धागुण
निर्मळ थतां आखुं द्रव्य संपूर्ण शुद्ध ज थई जवुं जोईए; पण श्रद्धागुणने अने आत्माने सर्वथा एकत्व–
अभेदपणुं नथी तेथी श्रद्धागुणना अने चारित्रगुणना विकासमां क्रम पडे छे. आम होवा छतां गुणने अने
द्रव्यने प्रदेश भेद न मानवा; श्रद्धा अने आत्मा प्रदेश अपेक्षाए तो एक ज छे. गुणने अने द्रव्यने अन्यत्वभेद
होवा छतां प्रदेशभेद नथी. वस्तुमां एक ज गुण नथी पण अनंत गुण छे अने तेमनामां अन्यत्व नामनो भेद
छे, तेथी ज श्रद्धा थतां तत्क्षणे केवळज्ञान थतुं नथी. जो श्रद्धा थतां ज ते ज क्षणे संपूर्ण केवळज्ञान थई जाय तो
वस्तुना अनंत गुणो ज सिद्ध थतां नथी.