Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७२ : आत्मधर्म : १७७ :
केरीना द्रष्टांते अन्यत्वभेदनुं स्वरूप समजावे छे–केरीमां रंग अने रस गुण जुदा छे, रंग गुण लीली–दशा
पलटीने पीळीदशारूप थाय छतां रस तो खाटो ने खाटो ज रहे; तेमज रसगुण पलटीने मीठो थाय छतां केरीनो
रंग तो लीलो ज रहे–केमके रंग अने रसगुण जुदा छे. (आ द्रष्टांत समजवुं.) तेम वस्तुमां दर्शनगुण खीले
छतां चारित्रगुण न खीले. परंतु एम तो न ज बने के चारित्रगुण खीले अने दर्शनगुण न खीले. ए खास
ध्यान राखवुं के सम्यग्दर्शन वगर कदी पण सम्यक्चारित्र होई ज न शके.
प्रश्न:– एम शा माटे बने छे? श्रद्धा अने चारित्र बंने गुण तो स्वतंत्र छे.
उत्तर:– गुणो स्वतंत्र छे ए वात खरी छे, परंतु श्रद्धा गुण करतां चारित्रगुण ऊंची जातनो छे, श्रद्धा
करतां चारित्रमां विशेष पुरुषार्थनी जरुरियात छे अने श्रद्धा करतां चारित्र विशेष पूजनीक छे, तेथी पहेलांं श्रद्धा
खील्या वगर चारित्रगुण खीली ज न शके. जेनामां श्रद्धागुण माटेनो अल्प पुरुषार्थ न होय तेनामां
चारित्रगुणनो घणो ज पुरुषार्थ तो क्यांथी होय? प्रथम सम्यक्श्रद्धा प्रगटवानो पुरुषार्थ कर्या पछी विशेष
पुरुषार्थ करतां चारित्रदशा प्रगटे छे. श्रद्धा करतां चारित्रनो पुरुषार्थ विशेष छे तेथी पहेलांं श्रद्धा थाय छे अने
पछी चारित्र थाय छे. माटे पहेलांं श्रद्धा प्रगट थाय अने पछी चारित्र खीले. श्रद्धा गुणनी क्षायिक श्रद्धारूप
पर्याय होवा छतां ज्ञान अने चारित्रमां अपूर्णता होय. आथी सिद्ध थाय छे के वस्तुमां अनंत गुणो छे अने ते
बधा स्वतंत्र छे; आ ज अन्यत्व भेद छे.
ज्ञानीने चारित्रना दोषने लीधे राग–द्वेष थाय छतां तेने अंतरथी निरंतर समाधान वर्ते छे के–आ राग–
द्वेष मने परवस्तुना परिणमनना कारणे नथी, ते मारा दोषथी थाय छे, छतां ते मारुं स्वरूप नथी; मारी
पर्यायमां रागद्वेष थाय तेने लीधे परमां कांई ज फेरफार थतो नथी. –आवी प्रतीतिमां ज्ञानीने राग–द्वेषनुं
स्वामीत्व ऊडी गयुं छे अने ज्ञातापणानो अपूर्व निराकुळ संतोष वर्ते छे. केवळज्ञान थवा छतां अरिहंतप्रभुना
प्रदेशत्व गुणनी अने ऊर्ध्वगमनस्वभावनी निर्मळता नथी तेथी ज संसारमां छे; अघाति कर्मनी सत्ताने लीधे
प्रभुने संसार छे–एम नथी; अन्यत्व नामनो भेद होवाने लीधे हजी प्रदेशत्व वगेरे गुणनो विकार छे तेथी ज
संसारमां छे.
जेम–सम्यग्दर्शन थतां चारित्र न थयुं त्यां पोताना चारित्रगुणनी पर्यायमां दोष छे, पण श्रद्धामां दोष
नथी. चारित्रनो दोष पोताना पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे छे पण कर्मना कारणे ते दोष नथी; तेम–केवळज्ञान
थवा छतां प्रदेशत्वसत्ता अने जोगसत्तामां विकार रहे छे तेनुं कारण ए छे के बधा गुणोमां अन्यत्व नामनो भेद
छे. पर्याये पर्यायनी सत्ता स्वतंत्र छे. आ गाथा द्रव्य–गुण–पर्यायनी स्वतंत्र सत्ताने जेम छे तेम बतावे छे. ज्ञेय
अधिकार छे तेथी दरेक पदार्थोनी अने गुणनी सत्तानी स्वतंत्रतानुं भान करावे छे. जो दरेक गुणसत्ता अने
पर्यायसत्तानी हैयातिने जेम छे तेम जाणे तो ज्ञान साचुं छे. निर्विकारी पर्याय के विकारी पर्याय ते पण स्वतंत्र
पर्यायसत्ता छे. तेने जेम छे तेम जाणवा जोईए. विकार पण पर्यायमां स्वतंत्रपणे जीव करे छे, ते पोतानी
पर्यायना दोषना कारणे छे. दरेक द्रव्य–गुण–पर्यायसत्ता स्वतंत्र छे पछी कर्मसत्ता आत्मानी सत्तामां शुं करे? कर्म
अने आत्मा ए बंनेनी सत्तामां तो प्रदेशभेद ज छे; बे वस्तुओने तो सर्वथा पृथकत्व भेद छे.
अहीं तो ए बतावे छे के, एक गुण साथे बीजा गुणने पृथकत्व भेद (प्रदेश भिन्नता) न होवा छतां पण
तेमने अन्यत्व भेद छे, तेथी एकगुणनी सत्तामां बीजा गुणनी सत्ता नथी. आ रीते स्वमां ज अभेदपणुं अने
भेदपणुं आ गाथा बतावे छे. प्रदेशभेद नथी माटे अभेद छे अने गुण–गुणी अपेक्षाए भेद छे.
कोई पण बे वस्तु ल्यो तो ते बे वस्तुने प्रदेशत्व भेद छे; पण एक वस्तुमां जे अनंतगुणो छे ते गुणोने
एक बीजा साथे अन्यपणुं छे–अन्यत्व भेद छे, पण पृथकत्व भेद नथी.
आ बे प्रकारना भेदनुं स्वरूप समजतां अनंत पर द्रव्यनो अहंकार टळ्‌यो अने पराश्रयबुद्धि टळीने
स्वभावनी द्रढता थई; तथा साची श्रद्धा थतां बधा गुणोने स्वतंत्र मान्या अने बधा ज गुणो शुद्ध छे एवी
प्रतीतिपूर्वक, हवे जे विकार थाय तेनो पण ज्ञाता ज रह्यो, एटले ते जीवने विकारना अने भवना नाशनी ज प्रतीति
थई गई. आ ज समजणनो अपूर्व लाभ छे. ज्ञेयअधिकारमां द्रव्य–गुण–पर्यायनुं वर्णन छे, दरेक गुण–पर्याय ज्ञेयरूप
छे एटले पोताना बधाय गुण–पर्यायनो अने अभेद द्रव्यनो ज्ञाता थई गयो, आ ज सम्यग्दर्शन धर्म छे.