Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १७८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४७२ :
आत्महित माटे कोई पण प्रकारनो राग लाभदायक नथी
प. पू. सद्गुरुदेवश्रीना समयसार मोक्ष अधिकार
गाथा २९६ उपरना व्याख्यानमांथी
ईन्द्रनी सुख सामग्री के तीर्थंकरोना समवसरणना वैभवनुं वर्णन सांभळीने जो तेनी रुचि जीवने थई
जाय तो तेने संयोगनी अने रागनी रुचि छे; ते राग वडे नथी आत्माने लाभ, के नथी परने लाभ! संयोग ते
रागनुं फळ छे, जेने संयोगनी अने रागनी रुचि छे तेने संयोग अने रागरहित एवा असंयोगी वीतराग
आत्मस्वभावनी रुचि नथी.
अहीं क्यां रागनी अने कया संयोगनी वात करी? जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय तथा ईन्द्र पद मळे ते
रागभाव अने समवसरण तथा ईन्द्रपदनी सामग्री–तेमां आत्मानुं सुख नथी अने तेना वडे स्वने के परने
खरेखर लाभ नथी.
ते केम लाभदायक नथी? केम के शुभराग पण विकार छे, ते रागवडे वर्तमानमां पोतानी अवस्थानी
शुद्धता अटके छे तेथी वर्तमानमां रागथी लाभ नथी, अने ते रागना फळमां जे बाह्य संयोग मळशे ते संयोग
उपर ज्यां सुधी लक्ष हशे त्यां सुधी वीतरागता नहि प्रगटे पण रागनो अभाव करवाथी ज वीतरागता प्रगटे
छे, माटे ते राग वडे भविष्यमां पण लाभ नथी.
प्रश्न:– जे जीव तीर्थंकरगोत्र बांधे ते तीर्थंकर–केवळीपद पामे ज एम नक्की थई जाय छे, माटे ते रागथी
एटलो तो लाभ थयो के नहि?
उत्तर:– ना, भविष्यमां केवळज्ञान थशे–एवो निर्णय ते राग वडे थयो नथी, परंतु सम्यग्दर्शनना जोरे ते
रागनो नकार वर्ते छे तेथी ते राग टाळीने अल्पकाळे केवळज्ञान थशे–एवो निर्णय थयो छे. त्यां सम्यग्दर्शननुं
माहात्म्य छे, पण रागनुं माहात्म्य नथी.
जे रागभावे तीर्थंकरगोत्र बांधे ते भावे तीर्थंकर–केवळीदशा पमाय नहि; पण, शुभाशुभराग थाय तेने
जाणनारूं ज्ञान ते हुं अने राग हुं नहि एम प्रज्ञावडे आत्माने अने रागने छेदीने भिन्न पाड्या छे ते प्रज्ञा ज
केवळज्ञाननुं कारण छे. प्रज्ञा अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रगट्या पछी जे तीर्थंकरगोत्रनो राग आव्यो ते रागने आत्मा
तरीके ज्ञानीओ स्वीकारता नथी पण बंध तरीके स्वीकारे छे; ज्यारे ते बंधभावने छेदशे त्यारे केवळज्ञान
प्रगटशे. प्रथम ‘राग ते मारुं स्वरूप नहि’ एम श्रद्धामां रागनो छेद कर्यो, त्यार पछी आत्मामां स्थिरता वडे
चारित्रमांथी पण ते रागने छेदी नाखवो ते ज मुक्तिनुं कारण छे. आ रीते नक्की थयुं के कोई पण जातनो
रागभाव पोताने वर्तमानमां के परंपराए भविष्यमां लाभदायक नथी.
भाई! चैतन्यस्वरूपनो महिमा तो चैतन्यमां ज छे, पण कोई रागवडे चैतन्यनो महिमा नथी. चैतन्यना
महिमाने जाण्या वगर गमे तेटलां शास्त्रो वांचे तोपण ते राग अने चैतन्यना भेदनुं भान न होवाथी गोटा ज वाळशे.
तीर्थंकरगोत्रनो शुभराग परंपरा मोक्षनुं कारण थाय एम ज्यां कह्युं होय त्यां तेनो आशय आ प्रमाणे
समजवो–जे राग छे ते तो बंधनुं ज कारण छे पण वर्तमान सम्यक्द्रष्टिमां ते रागनो स्वीकार करता नथी अने
ते द्रष्टिना जोरे क्रमेक्रमे स्थिरता करीने ते रागने अवश्य टाळशे अने ते रागभाव टाळीने अवश्य केवळज्ञान
प्रगटावी मोक्ष पामशे–आवुं साची द्रष्टिनुं माहात्म्य बताववा माटे उपचारथी ते रागने मोक्षनुं कारण कही दीधुं
छे. पण रागने खरेखर मोक्षनुं कारण न मानवुं, राग तो बंधनुं ज कारण छे.
‘हुं अमुक भाव करीने तीर्थंकर गोत्र बांधु’ एवी भावना वडे कदी तीर्थंकरगोत्र बंधाय नहि. केमके जेणे
तीर्थंकरगोत्रनी भावना करी तेणे रागनी भावना करी तेने बंधभावनी रुचि छे पण स्वभावनी रुचि नथी तेथी
ते मिथ्याद्रष्टि छे, मिथ्याद्रष्टिने तीर्थंकरगोत्र बंधाय ज नहि. पूर्ण–स्वभावनी ओळखाण पछी पूर्णतानी
भावनाना विकल्पथी सम्यग्द्रष्टिने ते सहेजे (–ईच्छा वगर, आदर वगर) बंधाय छे. पण प्रभु! ते तीर्थंकर
गोत्रनी रुचिमां तारा चैतन्यनी रुचिनो अनादर थई जाय छे, माटे नकार कर के पुण्य–पापनी कोई लागणी
मारी नथी, मारा चैतन्य स्वभावनी भावना वडे सर्व शुभाशुभने छेदीने हुं केवळज्ञान लेवानो छुं.
तीर्थंकर थनार जीव स्वर्ग के नरकमांथी च्यवन करीने मनुष्य थाय छे अने पछी चारित्रदशा वडे रागने