छे अने ईच्छा वगर दिव्यध्वनि छूटे छे. तीर्थंकरनो पूर्वनो राग के ते रागना बाह्य फळरूप समवसरण अने
दिव्यध्वनि ते पर जीवोने पण परमार्थे लाभनुं कारण नथी. केमके तीर्थंकर, समवसरण अने दिव्यध्वनि ए त्रणे
परवस्तु छे; जीवने ज्यांसुधी पर उपर लक्ष रहे त्यां सुधी राग ज होय. अने पर लक्षे आत्मस्वभाव समजाय
समोसरण अने दिव्यध्वनि–ए बधा निमित्तोनुं लक्ष छोडीने पोताना स्वभावमां एकाग्र थाय त्यारे ज ते
सम्यग्दर्शन पामे छे अने त्यारे ज तेने धर्मनो लाभ थाय छे. ज्यारे जीव पोते स्वभावना लक्षे साची समजण वडे
लाभ पामे त्यारे दिव्यध्वनि वगेरेने निमित्त कहेवाय छे; अने दिव्यध्वनिथी लाभ थयो अथवा तो तीर्थंकरप्रभुए
घणा जीवोने तार्या–एम उपचारथी बोलाय छे, पण खरुं स्वरूप तो उपर जणाव्या मुजब ज समजवुं.
प्रश्न:– शुभरागवडे तीर्थंकरगोत्र बंधाय अने तेनो उदय थतां दिव्यवाणी छूटे, ते वाणी सांभळीने घणा
ज्यारे भगवाननुं लक्ष छोड्युं त्यारे ज तेओ समज्या छे, तेथी स्व प्रज्ञावडे ज लाभ थयो छे अने त्यारे
निमित्त तरीके भगवाननी वाणीनी हाजरी हती तेथी, भगवाननी वाणी सांभळीने समज्या एम उपचारथी
कहेवामां आवे छे. अने स्वभाव समज्या पछी पण ज्यांसुधी भगवाननी वाणी तरफ लक्ष होय छे त्यांसुधी
राग टळतो नथी, पण प्रज्ञाना ज अभ्यास वडे ज्यारे स्वभावनुं ग्रहण अने रागनो त्याग करे छे त्यारे ज
चारित्रदशा प्रगटे छे, त्यां वाणीनुं लक्ष होतुं नथी. आ रीते भगवाननो पूर्वदशानो राग के तेना फळरूप दिव्य
वाणी ते पर जीवने पण खरी रीते लाभ कर्ता नथी......... आम होवा छतां प्रथम भूमिकामां ज्यां सुधी राग
होय त्यां सुधी अशुभ रागथी बचवा माटे अने ज्ञाननी विशेष निर्मळता माटे भगवाननी दिव्य वाणीनुं
श्रवण–मननरूपे अवलंबन होय छे. सम्यग्द्रष्टिओ अने गणधरो पण शुभ विकल्प वखते भगवाननी
परनो नकार करीने स्वभावमां ढळे छे, ते प्रज्ञा ज सर्वत्र लाभदायक छे, परंतु राग क्यारेय पण खरेखर
लाभदायक नथी.
स्थिरतावडे शुभ–अशुभ बंनेने छेदवा ते सम्यक्चारित्र छे. आ ज मुक्तिनो उपाय छे. शुभभावमां धर्म नथी
अशुभ करे तो ते जीव धर्म समजवानी पात्रतावाळो पण नथी. ज्यां मंदकषाय पण लाभदायक होवानी ना
पाडी तो पछी तीव्र कषाय तो लाभदायक होय ज केम?