Atmadharma magazine - Ank 034
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७२ : आत्मधर्म : १७९ :
छेदीने केवळज्ञान प्रगट करे छे, त्यारे तीर्थंकरगोत्रना परमाणुओना निमित्ते बहारमां समवसरणनी रचना थाय
छे अने ईच्छा वगर दिव्यध्वनि छूटे छे. तीर्थंकरनो पूर्वनो राग के ते रागना बाह्य फळरूप समवसरण अने
दिव्यध्वनि ते पर जीवोने पण परमार्थे लाभनुं कारण नथी. केमके तीर्थंकर, समवसरण अने दिव्यध्वनि ए त्रणे
परवस्तु छे; जीवने ज्यांसुधी पर उपर लक्ष रहे त्यां सुधी राग ज होय. अने पर लक्षे आत्मस्वभाव समजाय
नहि. माटे जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते रागभावथी परने पण लाभ नथी. पण जीव ज्यारे तीर्थंकर,
समोसरण अने दिव्यध्वनि–ए बधा निमित्तोनुं लक्ष छोडीने पोताना स्वभावमां एकाग्र थाय त्यारे ज ते
सम्यग्दर्शन पामे छे अने त्यारे ज तेने धर्मनो लाभ थाय छे. ज्यारे जीव पोते स्वभावना लक्षे साची समजण वडे
लाभ पामे त्यारे दिव्यध्वनि वगेरेने निमित्त कहेवाय छे; अने दिव्यध्वनिथी लाभ थयो अथवा तो तीर्थंकरप्रभुए
घणा जीवोने तार्या–एम उपचारथी बोलाय छे, पण खरुं स्वरूप तो उपर जणाव्या मुजब ज समजवुं.
जे राग पोताने लाभदायक नथी ते राग परने पण लाभदायक नथी.
प्रश्न:– शुभरागवडे तीर्थंकरगोत्र बंधाय अने तेनो उदय थतां दिव्यवाणी छूटे, ते वाणी सांभळीने घणा
जीवो धर्म समजे अने लाभ पामे–ए रीते शुभरागवडे परने तो लाभ थायने?
उत्तर:– ना. जे जीवो धर्म समज्या तेओ वाणीना लक्षे नथी समज्या, पण भगवान अने भगवाननी
वाणी तरफनी लागणी ए बंने मारुं स्वरूप नथी, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं–एम प्रज्ञावडे स्वलक्ष करीने
ज्यारे भगवाननुं लक्ष छोड्युं त्यारे ज तेओ समज्या छे, तेथी स्व प्रज्ञावडे ज लाभ थयो छे अने त्यारे
निमित्त तरीके भगवाननी वाणीनी हाजरी हती तेथी, भगवाननी वाणी सांभळीने समज्या एम उपचारथी
कहेवामां आवे छे. अने स्वभाव समज्या पछी पण ज्यांसुधी भगवाननी वाणी तरफ लक्ष होय छे त्यांसुधी
राग टळतो नथी, पण प्रज्ञाना ज अभ्यास वडे ज्यारे स्वभावनुं ग्रहण अने रागनो त्याग करे छे त्यारे ज
चारित्रदशा प्रगटे छे, त्यां वाणीनुं लक्ष होतुं नथी. आ रीते भगवाननो पूर्वदशानो राग के तेना फळरूप दिव्य
वाणी ते पर जीवने पण खरी रीते लाभ कर्ता नथी......... आम होवा छतां प्रथम भूमिकामां ज्यां सुधी राग
होय त्यां सुधी अशुभ रागथी बचवा माटे अने ज्ञाननी विशेष निर्मळता माटे भगवाननी दिव्य वाणीनुं
श्रवण–मननरूपे अवलंबन होय छे. सम्यग्द्रष्टिओ अने गणधरो पण शुभ विकल्प वखते भगवाननी
दिव्यवाणीनुं श्रवण करे छे, परंतु ते राग वखतेय आत्माना स्वभावमां प्रज्ञा रहेली छे ते प्रज्ञा रागनो अने
परनो नकार करीने स्वभावमां ढळे छे, ते प्रज्ञा ज सर्वत्र लाभदायक छे, परंतु राग क्यारेय पण खरेखर
लाभदायक नथी.
आ रीते मोक्षना साधन तरीके एक प्रज्ञानुं ज–भेदविज्ञाननुं ज–स्थापन कर्युं अने प्रज्ञा सिवायना बधा
भावोने बंधमार्ग तरीके स्थाप्या.
सम्यग्द्रष्टिने शुभभाव थाय खरा, पण तेओ तेने मोक्षमार्ग तरीके मानता नथी, अशुभथी बचवा माटे
शुभभाव आवे छे. अभिप्राय वडे ज्ञान स्वभावमांथी शुभ–अशुभ बंनेने छेदवा ते सम्यग्दर्शन छे अने
स्थिरतावडे शुभ–अशुभ बंनेने छेदवा ते सम्यक्चारित्र छे. आ ज मुक्तिनो उपाय छे. शुभभावमां धर्म नथी
माटे शुभने छोडीने अशुभभाव करवा एवो अर्थ तो समजवो ज नहि. जो तेवो अर्थ मानीने शुभ छोडीने
अशुभ करे तो ते जीव धर्म समजवानी पात्रतावाळो पण नथी. ज्यां मंदकषाय पण लाभदायक होवानी ना
पाडी तो पछी तीव्र कषाय तो लाभदायक होय ज केम?
सुवर्णपुरीमां पर्युषण दर साल मुजब उजववामां आवशे. श्री जैन अतिथि सेवा
समितिनी बेठक भादरवा सुद र ना रोज सांजे पांच वागे भरवामां आवशे. रा.मा.दोशी
१. रागमां धर्म माने ते मिथ्याद्रष्टि–बहिरात्मा.
२. प्रज्ञाछीणी वडे ज्ञानने अने रागने भिन्नपणे समजे अने रागमां धर्म न माने, छतां राग होय, ते साधक–
अंतरात्मा.
३. प्रज्ञाछीणी वडे ज्ञानने अने रागने भिन्नपणे समजे अने पछी ज्ञान स्वभावनी पूर्ण स्थिरता वडे रागनो
सर्वथा क्षय करे ते साध्य–परमात्मा.
ज्ञान अने रागने भिन्नपणे ओळखीने एक अंश पण रागने पोतानो मानवो नहि, पण प्रज्ञावडे ज्ञाननी
अधिकता अने रागनी हिनता राखीने मोक्षमार्गमां निःशंक चाल्या जवुं, ए ज मुक्तिनुं कारण छे. आज मार्गथी चैतन्य
भगवाननुं जेनशासन अनादि अनंत वर्ते छे, अने साधक संतोनी मंडळी–मुक्तिनी मंडळी आ ज मार्गे चाली जाय छे.