Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १९८ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७२ :
आत्मामां जे विकार थाय छे ते
आत्मानो स्वभाव नथी पण
विभाव छे अने विभावभाव
स्वलक्षे न थाय पण परलक्षे ज
थाय. आ रीते विकारी बंधभाव
आत्मानुं स्वरूप नथी पण पर लक्षे
थतो विभाव छे एम ज्ञान कराववा
माटे तेमां कर्मने निमित्त कहेवामां
आवे छे.
४२. प्र. –आत्माना अनंत
धर्मोमांथी थोडानां नाम आपो–
उ. –ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख,
वीर्य, कर्तृत्व भोक्तृत्व, अस्तित्व,
वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व,
प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व वगेरे
आत्माना अनंत धर्मो छे. अनंत
परद्रव्यो छे ते दरेकथी पोतानुं
जुदापणुं टकावी राखवारूप अनंत
अन्यत्व धर्म आत्मामां छे.
४३. प्र. –पर्याय शुं छे?
उ. –वस्तुना गुणोनुं त्रणेकाळे
दरेक समयनुं परिणमन ते पर्याय
छे.
४४. प्र. –एक पर्यायनो नाश
थवा छतां गुणनो नाश केम थतो
नथी?
उ. –केमके पर्याय पोते गुण
नथी, परंतु गुणनुं परिणमन छे,
तेथी जे समये एक पर्यायनो नाश
थाय छे ते ज समये गुण बीजा
पर्यायरूपे परिणमी जाय छे. आ
रीते पर्याय बदलाया ज करे छे
छतां गुण तो बधा पर्यायोमां
कायम टकी रहे छे.
४५. प्र. –सिद्धप्रभुमां अने
तमारा आत्मामां कया प्रकारे भेद
छे?
उ. –द्रव्य अपेक्षाए तो जेवा
सिद्धभगवान छे तेवो ज मारो
आत्मा छे, स्वभाव बंनेनो सरखो
छे, परंतु सिद्धभगवानने पर्यायमां
पण संपूर्ण शुद्धता प्रगटी छे अने मारे
हजी पर्यायमां अशुद्धता छे; पर्याय
अपेक्षाए फेर छे.
४६. प्र. –साधक धर्मात्माजीव
पोताने द्रव्यद्रष्टिथी तथा पर्यायद्रष्टिथी
केवो स्वीकारे छे?
उ. –साधक धर्मात्मा द्रव्यद्रष्टिथी तो
पोताने शुद्ध सिद्धसमान स्वीकारे छे
अने पर्यायद्रष्टिथी, मारी पर्यायमां
अंशे शुद्धता प्रगटी होवा छतां हजी
निरंतर मलिन थई रही छे–एम जाणे
छे; अने द्रव्यद्रष्टिना जोरे ते अशुद्धता
टाळवा मागे छे.
४७. प्र. –मंगळिकमां शुद्धात्माने
नमस्कार कई रीते कर्या छे?
उ. –नमस्कार ते शरीरनी क्रिया
नथी परंतु आत्माना भाव छे जेनी
जेने रुचि होय तेने ते नमस्कार करे.
नमस्कार एटले अंतरथी आदरसत्कार,
ते तरफनुं वलण. जेने नमस्कार करवा
होय तेनुं साचुं स्वरूप समज्या वगर
साचा नमस्कार थई शके नहि. अहीं
प्रथम शुद्धात्मानुं स्वरूप ओळखीने तेने
नमस्कार कर्या छे. जेणे शुद्धात्मानुं
स्वरूप ओळखीने तेने नमस्कार कर्या
ते हवे विकारीभाव पुण्य पाप वगेरेनो
आदर न करे. नमस्कार करतां पोताना
शुद्धात्मस्वरूपने लक्षमां लीधुं ते ज
प्रथम नमस्कार छे. अनादिथी विकारनो
आदर करतो हवे स्वभावनो आदर
कर्यो. आवो साचो नमस्कार ते धर्म छे.
४८. प्र. –शुद्धात्माने नमस्कार कर्या
तेमां मांगळिक शुं थयुं?
उ. –अनादिकाळथी पोताने
विकारीपणे मानीने आकुळताना दुःखने
ज भोगवतो हतो; हवे पोताना
शुद्धात्मस्वभावने लक्षमां लईने तेनो
आदर कर्यो अने विकारनो आदर
टाळ्‌यो, तेनी अशुद्धतानो अंशे नाश
थयो अने अंशे शुद्धता प्रगट थई–ते ज
मंगळिकस्वरूप छे. पहेलांं मिथ्याश्रद्धाने
लीधे क्षणेक्षणे भाव–मरणथी दुःखी
हतो, हवे साची समजण वडे ते
ऊंधी श्रद्धा टाळीने मोक्षमार्ग तरफ
वलण कर्युं ते ज महामंगळ छे.
४९. प्र. –विकारथी आत्मा
‘कथंचित्’ भिन्न छे एम शा माटे
कह्युं छे?
उ. –विकार ते आत्मानी
पर्यायमां थाय छे, कांई जडमां
थतो नथी, परंतु विकार ते
आत्मानो स्वभाव नथी;
स्वभावमां विकार नथी तेथी
विकारथी आत्माने कथंचित् भिन्न
कह्यो छे. परद्रव्यथी आत्मा सर्वथा
भिन्न छे परंतु विकारथी कथंचित्
भिन्न छे एटले के स्वभाव
अपेक्षाए विकारथी भिन्न छे अने
पर्याय अपेक्षाए विकार आत्मामां
थाय छे.
५०. प्र. –आत्माना सजातीय
अने विजातीय द्रव्यो कया कया
छे?
उ. –आ आत्मा सिवाय बीजा
अनंत आत्माओ छे ते सजातीय
द्रव्यो छे एटले के जाती अपेक्षाए
तेओ सरखां छे; अने बीजां जे
अजीव द्रव्यो छे ते बधाय
विजातीय छे एटले के आत्माथी
विरुद्ध लक्षणवाळां–जड छे.
५१. प्र. –पंच परमेष्ठिमां देव
केटला अने गुरु केटला?
उ. –अरिहंत अने सिद्ध ए बे
देव छे तथा आचार्य, उपाध्याय
अने साधु ए त्रण गुरु छे.
५२. प्र. –तेओने परमेष्ठि शा
माटे कह्या?
उ. –आत्माने परम ईष्ट एवुं
निर्मळपद तेओ पामेला छे अर्थात्
परम आत्म स्वरूपमां तेओ स्थित
छे तेथी तेओ परमेष्ठि छे.