Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : १९९ :
श्र ष्टप्र स्त्र प्र
: टूंकसार:
(वैशाख सुद – ६)
१. “ नमः सिद्धेभ्यः– ते सिद्ध भगवंतोने नमस्कार हो के जेओ
अनंत आत्मस्वरूपने प्राप्त करीने अनुभवे छे, अवस्थाथी पण ते आत्मद्रव्य
निर्विकल्प शुद्ध थयुं छे.
२. आ कुंदकुंदार्चादेवे रचेलुं अष्टप्राभृत छे, अष्टप्राभृत एटले आठ
प्रकारे भेटणुं. शुद्धात्मस्वरूपनी प्राप्ति माटे आ भेटणुं छे, जे आ प्राभृतमां
कहेवायेलुं स्वरूप समजे तेने आत्मस्वरूप राजा प्रसन्न थाय छे अने
केवळज्ञान लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय छे.
३. कोई एम कहे के, आ काळमां कोई दर्शन पूर्ण सत्य होई शके नहि माटे समन्वय करवो जोईए. तो
तेने पूछीए छीए के, हे भाई! तुं पोते जे अभिप्राय कहे छे ते पूरो सत्य छे के ते पण अपूर्ण छे? (१) जो
तारो ते अभिप्राय पूर्ण सत्य छे एम तुं कहे तो तारो अभिप्राय स्ववचनबाधित ठरे छे अर्थात् “पूर्ण सत्य
कोई न होई शके” एवी तारी वात खोटी पडे छे. अने (२) जो तारो मत अपूर्ण सत्य छे एम तुं कहे तो तारी
ते अपूर्णतामां बीजुं कांईक तारा जाणवाथी बहार रही जाय छे के जे पूर्ण सत्य छे. आ रीते, पूर्ण सत्य एवुं
जैनदर्शन जयवंत वर्ते छे.
४. आ हुंडावसर्पीणी काळमां जड वक्र बुद्धिवाळा जीवो थया, तेने लीधे सनातन जैन निर्ग्रंथ पवित्र
मार्गमां पण बुद्धि कल्पित मतो प्रवर्त्या, तेओए पूज्य श्री देव–गुरु–धर्मनुं स्वरूप विपरीत कल्प्युं छे. पूर्ण
परमात्म दशाने पामेला श्री अरिहंतदेवने आहारादि, परमात्मदशाना साधक संतमुनि श्री गुरुने वस्त्र अने
स्त्रीने मुक्ति–ए वगेरे महा विपरीत प्ररुपणाओ ते बुद्धि कल्पित थयेला मतोमां प्रवर्ते छे, ते प्ररुपणा
सर्वोत्कृष्ट पवित्र पदोने हीन बतावनारी छे, तेना देव–गुरु–शास्त्र त्रणेना स्वरूपमां भूल छे. कुंदकुंदप्रभुए सत्य
वस्तु स्वरूपने स्पष्ट कर्युं छे परंतु कोईना द्वेषथी के कोईना पक्षथी कह्युं नथी. जिज्ञासुओए मध्यस्थ थई सत्य
समजवुं.
त्रणलोकमां सर्वोत्कृष्ट पद होय तो ते तीर्थंकर पद छे, ते महान पदवीधारक तीर्थंकरने बे बाप कदापि
होय ज नहि. अरे, “बे बापनो” ए तो महा गाळ छे, तो पछी तीर्थंकर जेवा महान पुरुषने बे बाप मनाववा
ते महा भूल छे, तेम माननारने तत्त्वनी खबर नथी.
५. देव–गुरु–शास्त्रनुं साचुं स्वरूप पण जे न समजे तेने आत्मानी द्रढता थाय नहि. सत्यनुं स्थापन
अने विपरीतनुं उत्थापन करवा माटे आ शास्त्रनी रचना छे, माटे हे भव्य जीवो! अत्यारे हवे स्पष्टीकरणथी
समजवानो वखत छे, यथार्थ युक्ति कोनी छे अने दोषित युक्ति कोनी छे ते निर्णय करीने सत्य समज्जो. आ
अष्टप्राभृत व्याख्यानमां घणा वर्षे वंचाय छे.
६. जे कर्म शत्रुने जीते ते जिन. पोताना वीतरागभाव अने केवळज्ञानने हणनार राग–द्वेष–अज्ञान ते
ज शत्रु छे, साचां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे ते शत्रुओने जे जीते ते जिन छे. सम्यग्द्रष्टि जीवथी शरु करीने
जिनपणुं छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माना स्वभावनुं भान करीने, अज्ञान मोहने जीतीने राग–द्वेषनो स्वामी
थतो नथी, तेथी हजारो राणीओना संयोग वच्चे होवा छतां ते ‘जिन’ छे. सम्यग्दर्शनपूर्वक विशेष रागनो
अभाव करीने जेओ स्वरूपमां लीन छे एवा गणधरादि संतमुनिओ ‘जिनवर’ छे अने सर्वथा राग–द्वेष–
अज्ञाननो क्षय करी जेओ पूर्ण शुद्धात्मदशा पाम्या छे तेओ जिनवरमां पण श्रेष्ठ एवा ‘जिनवरवृषभ’ छे,
तेमने अमारा नमस्कार हो!