निर्विकल्प शुद्ध थयुं छे.
कहेवायेलुं स्वरूप समजे तेने आत्मस्वरूप राजा प्रसन्न थाय छे अने
केवळज्ञान लक्ष्मीनी प्राप्ति थाय छे.
तारो ते अभिप्राय पूर्ण सत्य छे एम तुं कहे तो तारो अभिप्राय स्ववचनबाधित ठरे छे अर्थात् “पूर्ण सत्य
कोई न होई शके” एवी तारी वात खोटी पडे छे. अने (२) जो तारो मत अपूर्ण सत्य छे एम तुं कहे तो तारी
ते अपूर्णतामां बीजुं कांईक तारा जाणवाथी बहार रही जाय छे के जे पूर्ण सत्य छे. आ रीते, पूर्ण सत्य एवुं
जैनदर्शन जयवंत वर्ते छे.
परमात्म दशाने पामेला श्री अरिहंतदेवने आहारादि, परमात्मदशाना साधक संतमुनि श्री गुरुने वस्त्र अने
स्त्रीने मुक्ति–ए वगेरे महा विपरीत प्ररुपणाओ ते बुद्धि कल्पित थयेला मतोमां प्रवर्ते छे, ते प्ररुपणा
सर्वोत्कृष्ट पवित्र पदोने हीन बतावनारी छे, तेना देव–गुरु–शास्त्र त्रणेना स्वरूपमां भूल छे. कुंदकुंदप्रभुए सत्य
वस्तु स्वरूपने स्पष्ट कर्युं छे परंतु कोईना द्वेषथी के कोईना पक्षथी कह्युं नथी. जिज्ञासुओए मध्यस्थ थई सत्य
समजवुं.
ते महा भूल छे, तेम माननारने तत्त्वनी खबर नथी.
समजवानो वखत छे, यथार्थ युक्ति कोनी छे अने दोषित युक्ति कोनी छे ते निर्णय करीने सत्य समज्जो. आ
अष्टप्राभृत व्याख्यानमां घणा वर्षे वंचाय छे.
जिनपणुं छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माना स्वभावनुं भान करीने, अज्ञान मोहने जीतीने राग–द्वेषनो स्वामी
थतो नथी, तेथी हजारो राणीओना संयोग वच्चे होवा छतां ते ‘जिन’ छे. सम्यग्दर्शनपूर्वक विशेष रागनो
अभाव करीने जेओ स्वरूपमां लीन छे एवा गणधरादि संतमुनिओ ‘जिनवर’ छे अने सर्वथा राग–द्वेष–
अज्ञाननो क्षय करी जेओ पूर्ण शुद्धात्मदशा पाम्या छे तेओ जिनवरमां पण श्रेष्ठ एवा ‘जिनवरवृषभ’ छे,
तेमने अमारा नमस्कार हो!