: २०० : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७२ :
वळी श्री वर्द्धमान देवने नमस्कार हो; ‘वर्धमान’ कहेतां छेल्ला तीर्थंकर श्री महावीर प्रभुने नमस्कार छे.
–अथवा तो बधाय तीर्थंकरो आत्मस्वरूपनी लक्ष्मी वडे वर्धमान ज हता, ते अनंत तीर्थंकरोने नमस्कार छे.
७. आवा नमस्कार करनारे केटलुं प्रतीतमां लीधुं? एकेक आत्मा परिपूर्ण स्वभावे छे, ते स्वभावने
समजनारा सम्यग्द्रष्टि ‘जिन’ छे, ते स्वभावनी विशेष रमणतारूप चारित्रदशावाळा मुनि ‘जिनवर’ छे तेमज
स्वभावनी पूर्ण एकाग्रता करीने केवळज्ञान पामनारा ‘जिनवरवृषभ’ छे अने एवा अनंत थया छे; आ रीते
वस्तुस्वभाव अने सम्यग्दर्शन, चारित्र, केवळज्ञान एवी निर्मळदशाओ तथा ते दशा पामनारा अनंत केवळी
भगवानोनी प्रतीतनो भाव जेणे पोतानी एक पर्यायमां समाडयो तेणे ज साचा नमस्कार कर्या छे. –हुं पण हवे
परिपूर्ण दशा पामवा तैयार थयो छुं. एम पोताना भावनी प्रतीत सहित नमस्कार कर्यो छे. आ प्रमाणे
मंगलाचरण कर्युं छे. –१.
(वैशाख सुद – ७) – गाथा – २ –
८. सर्वज्ञभगवाने गणधरादिक शिष्योने जे धर्म उपदेश्यो छे ते धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. तेने स्वकर्णवडे
सूण्या पछी दर्शनरहित पुरुष वदन करवा योग्यनथी.
पुण्यथी धर्म थाय, देहथी धर्म थाय–एम जे माने ते दर्शनरहित छे, तेने वंदन करवाथी अधर्म थाय, पाप
थाय, जैनदर्शननी विराधना थाय अने पोताना आत्मानो अपराध थाय छे. धर्मनुं मूळ तो सम्यग्दर्शन छे;
सम्यग्दर्शन न होय त्यां त्याग, आचार, जाणपणुं, वैराग्य, पडिमा वगेरे बधुंय मिथ्या छे.
९. प्रथम धर्म सम्यग्दर्शन ज छे, सम्यग्दर्शन ज बधा धर्मोनुं मूळ छे. बधा धर्मो एटले जैन अने जैनेतर
ए बधा–एम न समजवुं, परंतु आत्माना ज्ञान, चारित्र वगेरे बधा धर्मो समजवा. सर्वज्ञदेवे कहेला वस्तु–
स्वरूपना मत सिवाय अन्य कल्पित मतोमां क्यांय धर्मनो अंश पण नथी, अने सर्वज्ञना मतमां पण
सम्यग्दर्शन वगर कदापि धर्म नथी.
एक जैनमार्गमां ज धर्म छे अने ते पण एक ज प्रकारनो धर्म छे. ते धर्मनुं–ज्ञानधर्म, चारित्रधर्म,
त्यागधर्म, संयमधर्म, तपधर्म, भक्तिधर्म, दयाधर्म, प्रभावनाधर्म, दानधर्म वगेरे बधा धर्मनुं मूळ एक
सम्यग्दर्शन ज छे. जो सम्यग्दर्शन न होय तो ते कोई धर्म होता नथी.
१०. प्रश्न:– त्यागथी मुक्ति थाय के व्यवहारथी?
उत्तर:– सम्यग्दर्शनथी ज मुक्ति थाय. ते सिवाय त्यागथी के व्यवहारथी कोई रीते मुक्ति थाय नहि.
सम्यग्दर्शन वगर साचो त्याग के व्यवहार होई ज न शके. मूळ वगर झाड नहि, पाया वगर मकान नहि, तेम
सम्यग्दर्शन वगर धर्म नहि.
आत्मा सत्तास्वरूप वस्तु छे, तेनो यथार्थ भास थवो जोईए. आत्मस्वरूपनी परथी भिन्नतानुं भान न
होय तेने आत्मानो कोई जातनो धर्म होतो नथी.
११. सम्यग्दर्शन ए ज धर्म छे अने पूजा वगेरे रागनी क्रिया छे ते धर्म नथी. शुभभाव छोडीने अशुभ
करवां एम कहेतां नथी परंतु जो शुभरागमां धर्म माने तो ते सम्यक्त्वरहित मिथ्याद्रष्टि छे, तेने वंदन करवाथी
मिथ्यात्वनुं पाप लागे छे, धर्म समज्या वगर पुण्य करे तो ते सीधो नरक–निगोद न जतां प्रथम स्वर्गादिमां
जईने पछी हलकी गतिमां रखडे.
दर्शन वगरनो धर्म भगवाने कह्यो नथी. व्रत के पडिमाने भगवाने धर्मनुं मूळ कह्युं नथी. सम्यग्दर्शननुं
स्वरूप जाण्या वगर, पुण्यथी धर्म थाय ए वगेरे माननारा मिथ्याद्रष्टि मूढ जीवो छे, तेओ जैनदर्शनना मतना नथी.
१२. सत्यनी साची परीक्षा कर्या वगर ज्यां त्यां वंदनादि करवानी शास्त्र ना पाडे छे. आमां परने माटे
नथी. पर जीवनुं मिथ्यात्व तो तेनी पासे रह्युं परंतु जिज्ञासु जीवे पोते धर्म–अधर्मनी परीक्षा करी निर्णय करवो
जोईए, सत्यनो निर्णय कराववा माटे आ समजाव्युं छे, कहेवत छे के ‘बगडेलुं दूध छाशमांथी पण जाय’ एटले
के जे दूध बगडी गयुं होय ते खावामां काम न आवे, पण सारी छाश होय तोपण तेनी साथे रोटला खाई
शकाय; तेम आत्मस्वरूपना भान वगर त्यागी अने साधु नाम धरावे परंतु तेओ श्रद्धाभ्रष्ट होवाथी बगडेला
दूध समान छे, तेमनी पासेथी धर्मनी आशा राखवी नहि केमके तेओ पोते ज धर्मरहित छे. शरीरनी क्रियाथी
आत्माना परिणाम सुधरे एम माननार अज्ञानीने वंदन करवाथी पाप छे. परंतु कोई जीव सम्यग्दर्शन सहित
होय पण व्रत, त्याग वगेरे न होय ते ‘सारी छाश’ नी जेम धर्मात्मा छे, वंदनीक छे.