पणानो ज अंश छे.
करवानी ना नथी, परंतु एकला शुभमां धर्म मानीने त्यां ज संतोषाई न जतां आत्मानी ओळखाण करवानुं
कहेवाय छे, केमके आत्मानी ओळखाण वगर शुभभाव अनंतवार कर्या पण भवनो अंत आव्यो नहि; जे पूर्वे
अनंतवार करी चूक्यो ते शुभनी धर्ममां मुख्यता नथी, पण अनंतकाळे नहि करेल एवी अपूर्व आत्मसमजण
करीने भवनो अंत लाववानी मुख्यता छे.
वृत्ति ऊठे छे पण ते वृत्तिनो ज्ञानीने नकार वर्ते छे तेथी ते व्यवहारस्तुति कहेवाय छे; परंतु अज्ञानी तो ते
व्यवहारस्तुति पण कही शकाती नथी. विकल्प तोडीने ज्ञानस्वभावने रागथी जुदो अनुभवे छे ते तो
निश्चयस्तुति छे केमके तेमां राग नथी अने जीवने आत्माना ज्ञान–स्वभावनी ओळखाण थया पछी रागनी
शुभवृत्ति ऊठी तेनो ज्ञानस्वभावमां स्वीकार करतो नथी परंतु त्यां ‘रागनो नकार’ करे छे. तेथी तेने
व्यवहारस्तुति छे; अहीं ए ध्यान राखवुं के एकला रागने व्यवहार कह्यो नथी परंतु रागरहित स्वभावनी
श्रद्धाना जोरे रागनो नकार वर्ते छे त्यारे रागने ‘व्यवहार’ कहेवामां आवे छे. अज्ञानीने रागरहित स्वरूपनी
खबर नथी माटे तेने व्यवहार पण खरेखर तो होतो नथी. निश्चयना भान विना परनी भक्ति ते तो रागनी
अने मिथ्यात्वरूप अज्ञाननी ज भक्ति एटले के संसारनी ज भक्ति छे पण तेमां भगवाननी भक्ति नथी.
नथी. साची स्तुति साधक धर्मात्माने ज होय छे. जेने आत्मानुं भान नथी तेने साची स्तुति होय नहि........ पूर्ण
स्वरूपनुं जेणे भान तो कर्युं छे पण हजी पूर्णदशा प्रगटी नथी एवा साधक जीवो स्तुति करे छे. आ रीते चोथा
गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने बारमां गुणस्थान सुधी स्तुति होय छे, बारमां गुणस्थान पछी स्तुति होती नथी.
भगवानने भव नथी तेम ज्ञानस्वभावमां भव नथी, जेणे ज्ञान स्वभावनी प्रतीति करी तेने भवनी शंका न
रही. ज्ञान स्वभाव विकारथी अधिक छे, विश्व उपर तरतो छे; बधाय पदार्थोने जाणे पण क्यांय पोतापणुं मानी
अटके नहि, बधाथी छूटोने छूटो ज रहे छे.
भगवाने पण आ ज रीते स्वाधीन मार्गनुं स्वरूप कह्युं छे. जेटला ज्ञानीओ थई गया तेओए स्वरूपने आ ज
प्रमाणे जाण्युं अने कह्युं हतुं, वर्तमानमां छे तेओ पण एम जाणे छे अने एम ज कहे छे अने भविष्यमां पण
एम ज थशे. प्रथम आवो द्रढ निर्णय थया पछी पुण्य–पापना विकल्परहित, पराश्रयरहित स्वभावमां एकाग्र
थवानो पुरुषार्थ प्रगटे छे अने पूर्ण स्थिरता थतां पूर्ण वीतरागता प्रगटे छे.