Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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• भ ग व न न स च स्त त न स्व रू प •
समयसार – प्रवचनो भाग – २ मांथी
१. द्रव्यद्रष्टि वडे ज्ञानस्वभावने अनुभवतां विकारथी जराक (–द्रष्टि अपेक्षाए) जुदो पड्यो ते ज
वीतरागनी स्तुति छे. वीतराग–केवळज्ञानी विकार रहित छे अने तेमनी निश्चय स्तुति ते पण विकार रहित
पणानो ज अंश छे.
[पा. २०१]
प्रश्न:– कोई जीव ज्ञानस्वभावी आत्माने ज ओळखे अने शुभभावथी भगवाननी स्तुति बोले तो तेने
व्यवहारस्तुति तो कहेवाय ने?
उत्तर:– भगवान कोण अने पोते कोण ते ओळख्या वगर निश्चयस्तुति के व्यवहारस्तुति एकेय होय
नहि. शुभभाव करीने कषाय मंद पाडे तेमां पुण्य बंधाय परंतु आत्मानी ओळखाण वगर एकला शुभरागने
व्यवहारस्तुति कही शकाय नहि. जगतना पापभाव छोडीने भगवाननुं स्तवन, वंदन, पूजन ए शुभभाव
करवानी ना नथी, परंतु एकला शुभमां धर्म मानीने त्यां ज संतोषाई न जतां आत्मानी ओळखाण करवानुं
कहेवाय छे, केमके आत्मानी ओळखाण वगर शुभभाव अनंतवार कर्या पण भवनो अंत आव्यो नहि; जे पूर्वे
अनंतवार करी चूक्यो ते शुभनी धर्ममां मुख्यता नथी, पण अनंतकाळे नहि करेल एवी अपूर्व आत्मसमजण
करीने भवनो अंत लाववानी मुख्यता छे.
२. निश्चयस्तुति अने व्यवहारस्तुतिनी व्याख्या चाले छे. रागथी जुदो पडीने पोताना ज्ञानस्वभावना
लक्षे जीव टक्यो ते निश्चयस्तुति छे, अने ज्ञानस्वभावनुं भान होवा छतां अस्थिरताना कारणे स्तुतिना रागनी
वृत्ति ऊठे छे पण ते वृत्तिनो ज्ञानीने नकार वर्ते छे तेथी ते व्यवहारस्तुति कहेवाय छे; परंतु अज्ञानी तो ते
वृत्तिने ज पोतानुं स्वरूप मानी बेठो छे अने वृत्तिथी जुदुं स्वरूप मानतो ज नथी, तेथी तेनी शुभ वृत्तिने
व्यवहारस्तुति पण कही शकाती नथी. विकल्प तोडीने ज्ञानस्वभावने रागथी जुदो अनुभवे छे ते तो
निश्चयस्तुति छे केमके तेमां राग नथी अने जीवने आत्माना ज्ञान–स्वभावनी ओळखाण थया पछी रागनी
शुभवृत्ति ऊठी तेनो ज्ञानस्वभावमां स्वीकार करतो नथी परंतु त्यां ‘रागनो नकार’ करे छे. तेथी तेने
व्यवहारस्तुति छे; अहीं ए ध्यान राखवुं के एकला रागने व्यवहार कह्यो नथी परंतु रागरहित स्वभावनी
श्रद्धाना जोरे रागनो नकार वर्ते छे त्यारे रागने ‘व्यवहार’ कहेवामां आवे छे. अज्ञानीने रागरहित स्वरूपनी
खबर नथी माटे तेने व्यवहार पण खरेखर तो होतो नथी. निश्चयना भान विना परनी भक्ति ते तो रागनी
अने मिथ्यात्वरूप अज्ञाननी ज भक्ति एटले के संसारनी ज भक्ति छे पण तेमां भगवाननी भक्ति नथी.
३. स्तुति कोण करे? स्तुति ते पुण्य–पापनी लागणी रहित शुद्धभाव छे, आत्मानी ओळखाण सहित अने
रागरहित जेटली स्वरूपमां एकाग्रता करवामां आवे तेटली ज साची स्तुति छे, जे रागनो भाग छे ते स्तुति
नथी. साची स्तुति साधक धर्मात्माने ज होय छे. जेने आत्मानुं भान नथी तेने साची स्तुति होय नहि........ पूर्ण
स्वरूपनुं जेणे भान तो कर्युं छे पण हजी पूर्णदशा प्रगटी नथी एवा साधक जीवो स्तुति करे छे. आ रीते चोथा
गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिथी मांडीने बारमां गुणस्थान सुधी स्तुति होय छे, बारमां गुणस्थान पछी स्तुति होती नथी.
४. ज्ञान स्वभाव ते भगवान ज छे, केमके एकलुं ज्ञान तेमां विकार न रह्यो, अपूर्णता न रही, पर
वस्तुनो संग न आव्यो. बधाने जाणवापणुं अने पोताथी परिपूर्णपणुं आव्युं–आवुं ज्ञान ते भगवान ज छे.
भगवानने भव नथी तेम ज्ञानस्वभावमां भव नथी, जेणे ज्ञान स्वभावनी प्रतीति करी तेने भवनी शंका न
रही. ज्ञान स्वभाव विकारथी अधिक छे, विश्व उपर तरतो छे; बधाय पदार्थोने जाणे पण क्यांय पोतापणुं मानी
अटके नहि, बधाथी छूटोने छूटो ज रहे छे.
[पा. २३८]
५. आचार्यदेव कहे छे के आ समयसारमां कह्युं छे ते रीते जे जीव गुरुगमे यथार्थ समजे छे ते आ काळे
पण साक्षात् स्वानुभववडे भवरहितनी श्रद्धामां मोक्ष भाळे छे, तेने साक्षात् निर्णय थई जाय के सर्वज्ञ वीतराग
भगवाने पण आ ज रीते स्वाधीन मार्गनुं स्वरूप कह्युं छे. जेटला ज्ञानीओ थई गया तेओए स्वरूपने आ ज
प्रमाणे जाण्युं अने कह्युं हतुं, वर्तमानमां छे तेओ पण एम जाणे छे अने एम ज कहे छे अने भविष्यमां पण
एम ज थशे. प्रथम आवो द्रढ निर्णय थया पछी पुण्य–पापना विकल्परहित, पराश्रयरहित स्वभावमां एकाग्र
थवानो पुरुषार्थ प्रगटे छे अने पूर्ण स्थिरता थतां पूर्ण वीतरागता प्रगटे छे.
[पा. १०५]
६. आ पुस्तकना अंतिम मंगळरूप वचन आ प्रमाणे छे– [पा. २४१]... ‘आवी साची समजण
करनारा सम्यग्द्रष्टि जीवो जिनेश्वरदेवना लघुनंदन छे.’