Atmadharma magazine - Ank 035
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : १९१ :

वर्ष पांचमुं : सळंग अंक : कारतक
अंक ५हलो : ४९ : २४७४
परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजी स्वामीना
: व्यख्यन उपरथ :
१. जो अवस्थामां धर्म होय तो धर्म करवानुं रहे नहि.
२. जो वस्तु स्वभावमां धर्म न होय तो धर्म थई शके नहि.
३. वस्तु स्वभावमां धर्म होय पण पर्यायमां प्रगट न होय एवा जीवो वस्तुस्वभावनी
ओळखाण द्वारा पर्यायमां धर्म प्रगट करे छे.
पर्यायमां “विकार ते हुं” एवी मान्यतारूप अधर्म छे, पण वस्तुना स्वभावमां विकार
नथी एटले के वस्तु धर्मस्वरूप छे अने पर्यायमां अधर्म छे. पर्यायमांथी अधर्म टळीने धर्म प्रगट
करवा माटे पर्यायनुं लक्ष छोडीने द्रव्य स्वभावनुं लक्ष करवुं जोईए. माटे समयसारमां
अभेदद्रव्यद्रष्टिने प्रधान करीने अने भेदने गौण करीने उपदेश छे. भेदने गौण करीने तेने
व्यवहार कह्यो छे अने अभेदने मुख्य करीने तेने निश्चय कह्यो छे.
अआगम ग्रंथ अने अध्यात्म ग्रंथनी कथन शैली
आगम ग्रंथोमां छए द्रव्यनुं स्वरूप बताववानुं प्रयोजन छे; तेमां कोई वार अभेदने
प्रधान करीने कथन होय छे अने कोई वार भेदने प्रधान करीने कथन होय छे. अभेदने प्रधान
करवुं ते निश्चय छे अने भेदने प्रधान करवुं ते व्यवहार छे, एटले आगम ग्रंथमां ज्यारे
निश्चयनी प्रधानता होय त्यारे व्यवहार गौण होय अने ज्यारे व्यवहार मुख्य होय त्यारे निश्चय
गौण होय. आ रीते प्रयोजनाश्रित कोई वार निश्चय प्रधान अने कोई वार व्यवहार प्रधान
आगम ग्रंथमां होय छे.
अध्यात्म द्रष्टिना ग्रंथोमां तो आत्मानो शुद्धस्वभाव बताववानुं प्रयोजन छे; तेमां सर्वत्र
अभेदनी प्रधानताथी ज कथन होय छे. अध्यात्ममां शुद्धस्वभाव बताववानुं प्रयोजन होवाथी
तेमां क्यारेय पण अभेदने गौण करवामां आवे नहि तेम ज भेदने मुख्य करवामां आवे नहि.
अभेदने प्रधान करवो ते निश्चय छे अने भेदने गौण करवो ते व्यवहार छे. एटले अध्यात्म
द्रष्टिना शास्त्रोमां सर्वत्र निश्चयनी मुख्यताथी ज कथन होय छे अने व्यवहार सर्वत्र गौण होय
छे. आ मुख्य–गौणनी शैली जेओ नथी समजता तेओने पोतानी ऊंधी मान्यताथी एम लागे छे
के “आ एकांत निश्चय छे.” परंतु तेमनी ते मान्यता खोटी छे. अध्यात्ममां निश्चय–व्यवहारनुं
प्रयोजन ए छे के बंनेने यथार्थ जाण्या पछी निश्चयस्वभावनी द्रष्टि वडे व्यवहारनुं लक्ष छोडी
देवुं एटले के व्यवहारनो निषेध करवो–जो आम करे तो ज शुद्धात्मानी प्राप्ति थाय छे.
निश्चय अने व्यवहारना ज्ञानने अनेकान्त क्यारे कही शकाय? जो निश्चय व्यवहार वडे
अनेकांतस्वरूपने जाणीने सम्यक्एकांत एवा अभेद स्वभावमां ढळे तो निश्चयव्यवहारना
ज्ञानने अनेकांत कही शकाय छे. केमके अनेकांतनुं ज्ञान पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी
प्राप्ति कराववा सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी. उघाड ज्ञान वडे निश्चय व्यवहारने जाणीने जो
निश्चय स्वभाव तरफ न ढळे अने व्यवहारना ज लक्षमां अटकी रहे तो तेने सम्यक् एकांत एवा
निजपदनी प्राप्ति थाय नहि, अने तेथी तेनुं निश्चय व्यवहारनुं जाणपणुं ते अनेकांत कही शकाय
नहि. अध्यात्म द्रष्टिमां तो अनेकांत बताव्या पछी सम्यक् एकांत स्वभावमां ढाळवानुं ज
प्रयोजन छे; माटे अध्यात्म ग्रंथोमां सर्वत्र अभेद ज प्रधान छे; अने एना अभ्यासथी ज
शुद्धात्मानी प्राप्ति थाय छे.