–हरिगीत–
: भाद्रपद : २४७२ : आत्मधर्म : १९३ :
थाय, माटे कर्म वगेरे कोई चीज मारा दुःखनुं कारण नथी; परंतु दुःख मारी पर्यायमां छे तेथी दुःखनुं कारण पण
मारी पर्यायमां ज छे. त्रिकाळी स्वभाव ते दुःखनुं कारण नथी पण पर्यायमां ऊंधो भाव ते ज दुःखनुं कारण छे.
आथी एम नक्की थयुं के ते दुःख टाळवा माटे ऊंधो भाव ज टाळवो जोईए.
अवस्थामां मिथ्यात्व अने राग–द्वेष रूप बंधभाव ते ज दुःखनुं कारण छे अने हुं तो त्रिकाळ शुद्ध चैतन्य
स्वरूप छुं मारुं शुद्ध चैतन्य स्वरूप दुःखनुं कारण नथी. –आ प्रमाणे आत्माना शुद्ध स्वरूपने अने बंधभावोने
प्रज्ञाछीणीवडे भिन्न भिन्न ओळखीने प्रज्ञावडे आत्माने ग्रहण करवो अने बंधभावने छोडवो ते ज सुखी
थवानो अने दुःख दूर करवानो उपाय छे.
अज्ञानी अने ज्ञानीनी भावनामां महान
(समयसार – मोक्ष अधिकारना व्याख्यानमांथी गाथा – २९६. वीर संवत २४७२)
कोई एम विचारे के, ‘मारुं तो गमे ते थाव, जो मारा वडे जगतना घणा जीवोने लाभ थतो होय तो
मारे थोडाक भव भले वधे. ’ –आ भावना कोनी छे? पाका मिथ्याद्रष्टिनी ज आ भावना छे. भवनुं कारण तो
विकार छे, जेने विकार लंबाववानी भावना छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे. जेणे भवनी भावना भावी तेणे भवनुं
कारण जे विकार तेनी भावना भावी, अने विकाररहित स्वभावनी भावना भावी नहि.
ज्ञानी धर्मात्माने पण शुभ विकल्प आवे के ‘जगतना जीवो धर्म पामे’ –परंतु धर्मात्मा जीव ते विकारने
लंबाववा मागता नथी. ज्ञानीने भान छे के मारा विकल्प वडे कोईने (मने के बीजाने) लाभ थतो ज नथी अने
कोईना कारणे मारे भव होई शके ज नहि. जगतने समजाववा माटे मारे एक क्षण पण भवमां अटकवानुं होय
ज नहि, हुं मारा रागने कारणे अटकेलो छुं. बीजा जे जीवोने सम्यग्ज्ञाननो लाभ थाय छे ते तो तेमनी पोतानी
पात्रताथी थाय छे, हुं तो निमित्तमात्र छुं. परने हुं समजावी शकुं एवो अभिप्राय तो ज्ञानीने होतो ज नथी
परंतु ‘परने समजवामां हुं निमित्त छुं’ एवी परलक्षनी लागणीनी भावना ज्ञानीने होती नथी. सामा जीवोनी
तैयारी होय माटे निमित्तने अटकवुं पडे–एवी पराधीनता नथी.
शुद्ध ज्ञाता–द्रष्टाभाव सिवाय वच्चे कोई पण विकल्प आवे ते लाभनुं कारण नथी. पण भवना भावोने
छेदीने भवरहित चैतन्यस्वभावनी भावना ते ज मोक्षनुं कारण छे. ज्ञानी तो भवनी भावना भावे के
स्वभावनी? परना कारणे के विकल्पना कारणे ज्ञानीओ एक क्षण पण रोकावा मागता नथी; पुरुषार्थनी
मंदताना कारणे अटक्या छे, अने ऊग्र पुरुषार्थनी भावनाना जोरे तेने तोडी नाखवा मागे छे.
कोई उपर घणो राग होय अने तेने कहे के आवता भवे तमारा घरे जन्म लईने तमारा बधाय दुःख
टाळी दईश.–आवी भावना करनारने मूढ लोको तो ‘परमार्थी’ कहे छे, परंतु ज्ञानीओ कहे छे के ए परमार्थी
नथी, ए जीव महा पापी–मिथ्याद्रष्टि छे, केमके भवरहित पोताना स्वभावनो अनादर करीने तेणे विकारनी
भावना भावी छे.
समयसारमां पूर्वे २०५ मी गाथामां कह्युं हतुं के–
णाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं बहू विण लहंते।
तंगिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं।।
बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहि पामी शके;
रे ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्ममोक्षेच्छा तने.
अर्थ:– ज्ञानगुणथी रहित घणाय लोको (घणा प्रकारनां कर्म करवा छतां) आ ज्ञानस्वरूप पदने पामता
नथी; माटे हे भव्य! जो तुं कर्मथी सर्वथा मुक्त थवा ईच्छतो हो तो नियत एवा आ ज्ञानने ग्रहण कर.
समवसरणमां साक्षात् श्री तीर्थंकर भगवाननी सन्मुख ते भवे मोक्ष जनारा तथा एकावतारी संत–
मुनिओना टोळां वच्चे मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलींगी बेठो होय अने ते अनंत संसारी होय; भगवाननी अने
संतमुनिओनी हाजरी छे पण ज्यां ते जीवने पोताने ज प्रज्ञावडे स्वभाव जाणतां आवडतो नथी तेमां अन्य
कोई शुं करे? तेम हे भाई! तुं तारा भावमां पर जीवोने समजाववाना गमे तेटला विकल्पो कर, परंतु ज्यां पर
(अनुसंधान पान २०६)