: १९४ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४७२ :
श्री समयसारजी कलश १ – २ – ३ना
व्याख्याना आधारे केटलाक
१. प्र. –आ आत्माने शुं
करवानुं छे?
उ. –आ आत्माने सुखी थवानुं
छे अने सुख तो आत्मामां ज छे
तेथी आत्मानी ओळखाण करवी ते
ज आ आत्मानुं कर्तव्य छे.
२. प्र. –धर्मात्मा संसारमां
पतीत केम थता नथी?
उ. –धर्मात्माने अंतरभान वर्ते
छे के मारुं सुख मारामां छे, कोई पर
द्रव्यमां तेमज राग–द्वेषमां मारुं सुख
नथी, आवी प्रतीतिने लीधे पर
द्रव्योथी अने पर भावथी भिन्नपणे
पोताने सदाय अनुभवे छे तेथी
तेओ संसारमां पतीत थता नथी.
पण अल्पकाळे मुक्ति पामे छे.
३. प्र. –आत्मामां भेदपणुं अने
अभेदपणुं कई रीते छे?
उ. –आत्मामां अनंतगुणो छे ते
गुणोनुं कार्य दरेकनुं जुदुं छे, आ
रीते गुणभेदथी आत्मा भेदरूप छे.
अने बधाय गुणोनो आधार तो
एक आत्मा ज छे एटले के द्रव्य
अपेक्षाए आत्मा अभेद छे. जेमके,
ज्ञानगुणनुं कार्य जाणवानुं छे अने
श्रद्धागुणनुं कार्य प्रतीत करवानुं छे–
ए रीते गुण अपेक्षाए भेद छे;
तथा ज्ञान गुण पण आत्मानो छे
अने श्रद्धागुण पण आत्मानो छे–
ए रीते द्रव्य अपेक्षाए आत्मा
अभेद छे.
४. प्र. –आत्मामां नित्यपणुं
अने अनित्यपणुं कई रीते छे?
उ. –आत्मा द्रव्यपणे त्रिकाळ
एवो ने एवो टकी रहे छे तेथी
नित्य छे. अने ज्ञान वगेरे बधा
गुणोनी अवस्था समये समये
बदलाया करे छे तेथी अनित्य छे.
जेमके–आत्मा अज्ञानीमांथी ज्ञानी
थयो त्यां आत्मा तो एनो ए ज छे
तेथी द्रव्यपणे नित्य छे अने
अज्ञानदशा नाश थईने ज्ञान दशा
उत्पन्न थई एटले पर्याय अपेक्षाए
आत्मा अनित्य छे.
५. प्र. –जो पर्याय अपेक्षाए पण
आत्माने नित्य मानीए तो शुं वांधो
आवे?
उ. –जो पर्याय अपेक्षाए पण
आत्मा नित्य होय तो दुःख टळीने
सुख, राग टळीने वीतरागता, अज्ञान
टळीने साचुं ज्ञान–ए वगेरे कांई न
थई शके. अने जे राग–अज्ञान वगेरे
भावो छे ते पण नित्य थई जशे, तेम
थतां ज्ञान अने वीतरागता थई शकशे
नहि.
६. प्र. –आत्मामां एकपणुं अने
अनेकपणुं कई रीते छे?
उ. –आत्मामां गुण–पर्याय
अपेक्षाए अनेकपणुं छे, अने द्रव्य
अपेक्षाए एकपणुं छे.
७. प्र. –तमे आत्मामां भेदपणुं
स्वीकारशो के अभेदपणुं?
उ. –आत्माना भेदपणानुं अने
अभेदपणानुं स्वरूप ज्ञानमां
स्वीकारीने, श्रद्धामां अभेदपणानो
स्वीकार करशुं.
८. प्र. –श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, सुख,
वीर्य अने आत्मा ए बधानां कार्य
बतावो.
उ. –श्रद्धागुणनुं कार्य प्रतीत
करवानुं छे.
ज्ञानगुणनुं कार्य जाणवानुं छे.
चारित्रगुणनुं कार्य ज्ञानमां स्थिर
थवानुं छे.
सुखगुणनुं कार्य आह्लाद आपवो
ते छे.
वीर्यगुणनुं कार्य पोताने जे
रुच्युं तेनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ
करवानुं छे.
आत्मानुं कार्य पोताना अनंत–
गुण–पर्यायोने पोतामां एकपणे
टकावी राखवानुं छे.
९. प्र. –एक समयमां गुणने
आश्रये अने द्रव्यने आश्रये
गुणनी केटली पर्याय होय?
उ. –एक समये एक गुणने
आश्रये एक ज पर्याय होय छे
अने द्रव्यमां अनंतगुणो रहेला छे
तेथी तेनी अनंत पर्यायो एक
समयमां द्रव्यने आश्रित होय छे.
१०. प्र. पर्याय अने पर्यायी
एटले शुं? तेनुं ज्ञान शा माटे
करवुं?
उ. –पर्याय एटले वर्तमान
हालत, अवस्था. अने पर्यायी
एटले पर्यायरूपे थनार–द्रव्य. आ
जाणवाथी एम समजाय छे के–
पर्यायरूपे थनार द्रव्य पोते ज छे
परंतु निमित्त वगेरे परपदार्थो
द्रव्यनी पर्यायना कर्ता नथी. सौ
द्रव्य पोतपोतानी पर्यायमां
स्वतंत्रपणे परिणमे छे. पोतानी
पर्याय पोताना आत्मामांथी आवे
छे तेथी पोतानी शुद्धपर्याय प्रगट
करवा माटे आत्मा तरफद्रष्टि करवी
जोईए.
११. प्र. –१. ‘आत्मामां अनंत
गुणो होवा छतां गुणोमां प्रदेशभेद
नथी’ अने २. ‘आत्मा अनंत
गुणनो पिंड छे’ –ते बोलमां कया
धर्म आव्या?
उ. –पहेलांं बोलमां
‘अभेदपणुं’ अने बीजा बोलमां
‘एकपणुं’ एम बे धर्मो आवे छे.