अपेक्षाए?
कह्यो परंतु वस्तुना गुण–पर्यायोने
वस्तुनो धर्म कह्यो छे. आत्माना
गुण–पर्यायो ते आत्मानो धर्म छे.
अशुद्धपणुं ते पण आत्मद्रव्यनी
पर्याय होवाथी अशुद्धपणाने पण
आत्मानो धर्म कह्यो छे. अशुद्धता
पण आत्मानी पर्यायमां पोते करे
छे, स्वभावमां अशुद्धता नथी;
त्रिकाळ शुद्ध छे एम जो शुद्धता
अने अशुद्धतानुं स्वरूप समजे तो
शुद्धद्रव्यना लक्षे पर्यायनी अशुद्धता
टाळे.... एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप धर्म प्रगटे.
अज्ञानीने?
भगवानना आत्मामां गुणो छे
तेटला ज गुणो दरेक आत्मामां छे.
वचन अगोचर अनंतगुणो बधा
आत्मामां सरखां छे.
उ. –अनेक+अंत. अनेक=घणा;
धर्मो. दरेक वस्तु अनेकान्त स्वरूपे
होवाथी दरेक वस्तुमां अनंत धर्मो
रहेला छे.
छतां तेने वस्तु केम कहेवाय?
हाथथी पकडातो नथी. छतां तेनामां
पोताना ज्ञानादि अनंतगुणो रहेला छे
तेथी ते पण अनंत धर्मोवाळी वस्तु छे
छे छतां अहीं आत्माने
अनंतधर्मोवाळो केम कह्यो?
तेमज अपेक्षित भावोने ‘धर्म’ कहेल छे,
तेवा अनंत धर्मो दरेक वस्तुमां छे; आ
तो जड वस्तुमां पण लागु पडे छे.
सम्यग्दर्शनादि धर्म मोक्षमार्गरूप छे, ते
त्रणे काळे एक ज प्रकारनो छे.
रीते होय?
तेनामां मोक्षमार्गरूप धर्म नथी, परंतु
अस्तित्व, द्रव्यत्व, अरूपीपणुं, रूपीपणुं
वगेरे अनंत धर्मो जडवस्तुमां रहेलां
छे. अनंत धर्मो वगरनी कोई पण
वस्तु होई ज न शके.
ओळखाय?
चेतनपणुं अन्य द्रव्योमां नथी तेथी
चेतन लक्षण वडे आत्मा अन्य द्रव्यथी
भिन्नपणे ओळखाय छे. वळी, अनंत
आत्माओ छे ते दरेकनुं चेतनपणुं जुदुं
जुदुं छे तेथी अन्य आत्माओथी पण
अनुभवाय छे.
नमस्कार करीए; अनंत धर्मोवाळा
आत्म तत्त्वने जोनारूं सम्यग्ज्ञान ए
केवळज्ञान अनंतधर्मोवाळां
आत्माने प्रत्यक्ष देखे छे तेथी ते
साक्षात् सरस्वतीनी मूर्ति छे, अने
श्रुतज्ञान परोक्ष देखे छे तेथी ते पण
सरस्वतीनी मूर्ति छे. वळी
द्रव्यश्रुतरूप वाणी पण आत्माना
अनंतधर्मोने देखाडनारी छे तेथी ते
पण सरस्वतीनी मूर्ति छे. आ रीते
सर्व जीवोनुं कल्याण थाय छे माटे
तेने नमस्कार करवा योग्य छे. श्री
अमृतचंद्राचार्यदेव आशीर्वाद आपे
छे के ‘आवी सरस्वतीनी मूर्ति
सदाय प्रकाशरूप रहो! ’ लोकोमां जे
सरस्वती मनाय छे ते सत्यार्थ नथी.
आत्माना स्वरूपने जे रीते देखे छे
ते रीते आत्माना स्वरूपनी
ओळखाण करवी एटले के पोतामां
सम्यग्ज्ञान प्रगट करीने आत्माना
तत्त्वनुं अवलोकन करवुं ते ज
सरस्वतीने भाव नमस्कार छे.
‘रागरूप विकल्प सहित’ एम न
समजवो, परंतु पोताने अने परने
रागरहित जाणनारुं ज्ञान ज छे,
माटे ते ‘सविकल्प’ छे, ज्ञान
सिवायना बीजा गुणो छे तेओ
‘निर्विकल्प’ कहेवाय छे.