: २१८ : आत्मधर्म आसो : २४७२
श्रावाण वद १३ थी भादरवा सुद ५ सुधीना धार्मिक दिवसो दरमियान
थयेला, श्रीसमयसारजी गाथा १३ तथा श्रीपद्मनंदी पंचिवंशित शास्त्रना
ऋषभजिनस्तोत्र उपरना व्याख्यानो अने र्चाओनो टूंक सार
मंगलाचरण
अच्छिन्न शासनधारा
श्री शांतिनाथ भगवानथी ठेठ आज सुधी वीतरागशासन अत्रूटपणे चाली रह्युं छे; ऋषभदेव
भगवाननी पछी, श्री शांतिनाथ भगवान थया त्यार पहेलांं वच्चे सात वखत विच्छेद पडी गया हता. पण
शांतिनाथ भगवान थया त्यारथी अत्यार सुधी विच्छेद वगर अच्छिन्नपणे शासन चाली रह्युं छे. आ रीते,
गणधरो, ईन्द्रो अने चक्रवर्तीओ पण जेनुं सेवन करे छे एवुं शासन जयवंत वर्ते छे.
१. –देव–गुरु–शास्त्र–
जेणे आत्मानुं हित करवुं छे ते जीवोए प्रथम शुं करवुं? प्रथम साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण पूर्वक
मान्यता जोईए. अरिहंतदेव, निर्ग्रंथ गुरु अने आत्मानी पूर्णता बतावनारा अनेकांत स्वरूप शास्त्रोनी ज
मान्यता होय, ते हितमां निमित्त थई शके परंतु कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र तो कोई प्रकारे हितमां निमित्त थाय नहि.
जेने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धामां ज भूल छे तेने आत्महित थाय ज नहि, –पछी भले ते पोतानी मान्यता
अनुसार त्याग–व्रत वगेरे करे. माटे आत्महितना जिज्ञासुओए साचा देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने खोटा देव–
गुरु–शास्त्रनी मान्यता सर्व प्रथम छोडवी जोईए.
२. –भक्ति–
आत्मानो स्वभाव समजीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करवां ते निश्चय भक्ति छे, अने आत्माना
भान पछी ज्यां संपूर्ण वीतरागना न थाय त्यां पूर्ण वीतरागी परमात्मानी ओळखाण पूर्वक तेमनी भक्ति
अने अर्पणतानो शुभराग होय छे ते व्यवहार भक्ति छे. जेने अरिहंतदेवनी ओळखाण अने तेमना प्रत्ये
भक्ति–अर्पणता नथी तेने पोताना शुद्धात्मानी भक्ति ऊगे नहि. आ जगतमां पूर्ण परमात्म स्वरूप
बतावनार देव श्री अरिहंत परमात्मा ज छे. पूर्ण परमात्म स्वरूपनी प्राप्तिना ईच्छक जीवोने प्रथम अरिहंत
देवनी भक्ति उछळ्या वगर रहेती नथी.
जेम पतिव्रता स्त्रीने बीजो पति न होय तेम साचा जिज्ञासु जीवोने अरिहंत देव सिवाय बीजा देव न
होय. जे अरिहंतदेव सिवाय कुदेवादिने कोई पण प्रकारे माने छे ते वीतरागनो भक्त नथी, जिज्ञासु नथी.
पतिना गुणो जाण्या वगर पति तरफ प्रेम उल्लसे नहि तेम सर्वज्ञ वीतरागदेवने गुणो वडे बराबर ओळख्या
वगर तेमना प्रत्ये साची भक्ति उछळे नहि.
तीर्थंकर प्रभुना जन्म कल्याणकने स्वर्गना देवो पण ऊजवे छे. तेमनो जन्म थतां एकावतारी ईन्द्रो पण
भक्तिथी नाची ऊठे छे के धन्य अवतार! धन्य प्रभु! आ देहे तारी मुक्ति थवानी छे. तुं असंख्य जीवोनो उद्धार
करनार छो. असंख्य देवोनो स्वामी अने अपार वैभवनो धणी ईन्द्र छे ते भगवानना चरणमां नमी पडे छे, हे
नाथ! आप ज तरण तारण छो, आ जगतना कल्याणकारी प्रभु तरीके आप जन्म्या छो. आम वीतरागना
भक्तो वीतरागने अर्पाई जाय छे. जे वीतराग भगवानने नमे ते वीतरागतानो आदर करे पण रागनो आदर
न करे, अने कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने तो स्वप्ने पण साचां न माने. माथुं जाय पण साचा देव–गुरु–शास्त्र सिवाय
बीजाने माने नहि अने रागमां धर्म माने नहि. आ तो हजी व्यवहार भक्ति छे एटले के धर्म पामवा माटेनी
पात्रता छे.
भगवानना भक्तो ज्यां त्यां भक्तिने ज मलावे छे. चंद्रमां हरण जेवो आकार देखाय छे ते शुं छे?
आचार्य देव भक्ति करतां अलंकारथी कहे छे के हे नाथ! हरणियाने संगीतनो बहु शोख होय छे. सुधर्म स्वर्गना
देवो मधुर स्वरथी आपनी वीतरागतानां गाणां गाय छे, ते देवोनुं संगीत सांभळवा माटे आ लोकनुं हरणियुं
अहींथी चंद्रलोकमां गयुं छे अने त्यां बेठुं बेठुं तारा