Atmadharma magazine - Ank 036
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४७२ आत्मधर्म : २१९ :
गाणां सांभळे छे. कोई कहे–अरे, चंद्रलोकमां हरणियाने घास क्यांथी मळशे? त्यां घास तो होतुं नथी. तो कहे छे
के अरे भाई! भगवानना गाणां सांभळवामां एवा मश्गुल छीए के भूखने भूली जईए. भगवानना गाणां
सांभळतां अमारो आत्मा आनंदथी डोली ऊठे! –आम, जेने आत्मानी रुचि छे ते वीतरागनां गाणां गाय छे.
एकवार पण अंतरना उल्लासथी ऊछळीने जो वीतराग प्रभुनी साची भक्ति जीव करे तो जन्म–मरणनो अंत
आवे ज. अहीं एकला शुभरागनी वात नथी, परंतु वीतरागनी भक्तिमां वीतरागभावनी ओळखाण अने
वीतरागभावनो अंतरथी आदर ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
प्रश्न:– शुभराग ते पुण्य छे, अने पुण्यथी धर्म तो थतो नथी, पछी भक्तिनो उपदेश शा माटे कर्यो?
उत्तर:– प्रथम भूमिकावाळा जिज्ञासुने रागथी धर्म नथी ए वात खरी, परंतु साधक धर्मात्माने राग वर्ते
छे, ते रागनो नकार वर्ते छे वीतराग भावनी भावना वर्ते छे त्यां साधकधर्मात्माने अने प्रथम भूमिकावाळा
जिज्ञासुने शुभरागने लीधे वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये भक्ति उछळ्‌या वगर रहे ज नहि. जो साचा देव–
गुरु–शास्त्र प्रत्ये भक्ति न जागे अने संसार प्रत्येनो उल्लास आवे तो ते जीवने आत्मानी रुचि नथी. छतां
एकला साचा देव–गुरु–शास्त्रना रागमां ज अटके पण तत्त्वनो निर्णय न करे तो तेने धर्मनो लाभ थाय नहि.
३. –तत्त्वनिर्णय अने भक्ति–
कोई एम कहे छे के, अमारी बुद्धि तत्त्व निर्णयमां काम करती नथी, अमे तो भक्ति वगेरे करीए! तो
तेनुं समाधान: हे भाई! तत्त्वनिर्णय थया वगर वीतराग प्रत्ये साची भक्ति नहि आवे. अरे भाई! जो
तत्त्वनिर्णय करवामां तारी बुद्धि जराय कार्य न करे तो तें मनुष्यभव पामीने शुं कर्युं? मनुष्यपणामां जे
तत्त्वनिर्णय करवा मागे ते जरूर करी शके छे. सर्वज्ञ वीतराग सिवाय बीजाने पण साचा माने अने बधाने हा
जी हा करे तो ते भ्रष्ट छे.
४. –सतीने बीजो पति न होय–
सती जसमा ओडण हती, तेने पाटणना राजा सिद्धराज जयसिंहे कह्युं के तुं मने स्वीकार, हुं तने
राणी बनावुं. परंतु जसमा मरी गई तो पण तेणे स्वीकार्यो नहि; मरी जाय पण सतीने बीजो पति होय
नहि. तेम वीतरागना साचा भक्तो कहे छे के अमे वीतराग सर्वज्ञनी जातना आत्मा छीए, अमारो पति
सर्वज्ञ वीतरागी ज होय. मरी जईए तो पण रागी देवने अमे न मानीए. जेम सतीने बे पति होय नहि
तेम अमारे सर्वज्ञ सिवाय बीजो देव नहि. जे सर्वज्ञ वीतरागने देव तरीके माने ते कदापि हिंसादिभावमां
धर्म मनावे नहि, अने पोतानी सगवड खातर पर जीवनी हिंसा करवी एवो आदेश कदापि आपे नहि अने
माने पण नहि. मनुष्योने खातर वांदरा वगेरेनी हिंसा करवी अने तेने धर्म मानवो ते काळो केर छे–महा
पाप छे, ए तो संकल्पी स्थूळ महाहिंसा छे. पंचेन्द्रिय प्राणीनो वध ते महाहिंसा छे, छतां तेमां धर्म मनावे
अने ते हिंसा करवानुं अनुमोदन आपे–ते तो वीतरागदेवनो तीव्र विरोधी अने महा हिंसक छे, तेनी
वातनी हा पाडनारा वीतरागने मानता नथी.
५. –देडकानी प्रभु भक्ति–
अरे, देडकाने पण प्रभु प्रत्ये भक्ति आवतां ते मोढामां फूल लईने पूजा करवा जतुं हतुं, त्यां श्रेणीक
राजाना हाथीना पग नीचे कचराईने मरी गयुं अने भक्ति भावने लीधे देव थयुं. देव थतां तुरत समवसरणमां
आवीने श्रेणीक राजा पहेलांं प्रभुनी भक्ति–पूजा करी. भक्तोने भक्तिना विरह न पालवे. देडको मरीने देव थयो
अने देवपणे भक्ति पूरी करी. साचा भक्तोनी भक्तिमां भंग न होय.
६. –भक्तनी भावना–
भगवाननी भक्तिनो प्रसंग आवतां भक्त झाल्यो रहे नहि. हे प्रभु! तमे ज अमारा मोक्षना देनारा
छो, अमारो मोक्ष तमे ज छो. हे नाथ! तारा सिवाय (शुद्धात्म स्वरूप सिवाय) बीजुं कांई जोईतुं नथी. पुण्य
तो अमारा दासपणे रहेशे, अमे रहेशुं त्यां सुधी ते दासपणे रहेशे अने भक्तिनो विकल्प तोडीने स्वरूपमां
लीनता करी सिद्ध थशुं त्यां पुण्यनो विकल्प अने पुण्य बंने टळी जशे. हे नाथ! स्वर्गमां जईने त्यांथी नीकळीने
जो तीर्थंकरादि पदवी थशे तो ते तारी ज भक्तिनो प्रभाव छे. आम शुद्धात्मानी भक्तिनी भावनामां ज्ञानीने
ऊंचा पुण्य बंधाई जाय छे पण ज्ञानीने तेनी भावना होती नथी, पण वीतरागतानी ज भावना होय छे. हे
प्रभु! अमे अमारा शुद्धात्म स्वरूपनी रुचि पासे तारा सिवाय बीजानी प्रशंसानो विकल्प