आसो : २४७२ आत्मधर्म : २२१ :
पोक मूकवा जेवुं छे. जेणे आत्माने जाण्यो नथी अने विकारनी ने शरीरनी ममता करी छे ते भव पूरो करीने
जन्म–मरणमां ज चाल्या जाय छे. पोताना आत्मानो महिमा अने रुचि जाग्या वगर कदी जन्म–मरणथी निवेडा
थाय तेम नथी.
आत्माना त्रिकाळ शुद्ध स्वरूपने शुद्धनय परोक्ष देखाडे छे. आत्मानुं शुद्ध स्वरूप बधाने समजाय तेवुं छे
माटे ज ज्ञानीओ ते समजावे छे. प्रभु! तुं आ काळे आत्मानुं शुद्ध स्वरूप समजी जा अने तने पोताने आत्माथी
खातरी थई जाय के, हवे एक–बे भवमां ज संसारनी समाप्ति छे. आवी निःशंक प्रतीति पोताने थई जाय एवी
समजण अत्यारे थई शके छे. राग–द्वेष सर्वथा टळी जाय नहि छतां रागद्वेषरहित शुद्ध ज्ञान स्वरूपनी प्रतीति
थई शके छे, एवी प्रतीति करवी ते ज सम्यग्दर्शन छे.
१३. –सम्यग्दर्शननुं कार्य–
प्रश्न:– अमारे गृहस्थोने सम्यग्दर्शन शुं कामनुं?
उत्तर:– अरे भाई! जगतना सर्व जीवोने धर्म करवा माटे सौथी प्रथम सम्यग्दर्शन ज उपाय छे.
सम्यग्दर्शन महान उपकारी त्रणकाळ त्रण लोकमां अन्य कोई नथी. एक सेकंड मात्रनुं सम्यग्दर्शन अनंत भवनो
नाश करे छे. श्री अष्टपाहुडमां कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के–
“प्रथम तो श्रावके सुनिर्मळ अने मेरूवत् निष्कंप एवा सम्यक्त्वने ग्रहण करवुं अने दुःखना क्षय अर्थे
तेने ज ध्यानमां ध्याववुं.” [मोक्षपाहुड–गाथा–८६]
“घणुं कहेवाथी शुं साध्य छे? जे नरप्रधान भूतकाळमां सिद्ध थया अने भविष्यकाळमां सिद्ध थशे ते आ
सम्यग्दर्शननुं ज माहात्म्य जाणो” [मोक्ष पाहुड गाथा ८८]
“मुक्तिनुं करवावाळुं सम्यक्त्व छे तेने स्वप्नदशा विषे पण जे पुरुषे मलिन कर्युं नथी ते ज पुरुष धन्य
छे, ते ज सुकृतार्थ छे, ते ज शूरवीर छे, ते ज पंडित छे अने ते ज मनुष्य छे.” [मोक्षपाहुड गाथा ८९]
वळी श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमां कह्युं छे के–
त्रणकाळ त्रणलोकमां आ जीवने सर्वोत्कृष्ट उपकार करनार सम्यक्त्व सिवाय बीजुं कोई नथी, अने
सर्वोत्कृष्ट अहित करनार मिथ्यात्व सिवाय बीजुं कोई नथी. तीर्थंकर वगेरे पण सम्यक्त्व समान उपकार
करनार नथी. संसारना समस्त दुःखनो नाश करनार अने आत्मकल्याण प्रगट करनार एक सम्यक्त्व छे, माटे
ते प्रगट करवानो पुरुषार्थ करो.
१४. “नव तत्त्वोनी परिपाटीने छोडीने एक आत्मा ज अमने प्राप्त हो! ”
“ज्यां सुधी केवळ व्यवहारनयना विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोनुं ज श्रद्धान रहे त्यां सुधी निश्चय
सम्यग्दर्शन नथी. तेथी आचार्यदेव कहे छे के ए नवतत्त्वोनी संततिने (परिपाटीने) छोडी शुद्धनयनो विषयभूत
एक आत्मा ज अमने प्राप्त हो; बीजुं कांई चाहता नथी. आ वीतराग अवस्थानी प्रार्थना छे, कोई नयपक्ष
नथी. जो सर्वथा नयनो पक्षपात ज थया करे तो मिथ्यात्व ज छे” (समयसार पा. २६)
जे ज्ञानी होय ते व्यवहारनुं ज्ञान राखे परंतु केवळ व्यवहारने ज न माने. जे नवतत्त्वने ओळखता
नथी ते तो स्थूळमिथ्याद्रष्टि छे, तेने तो ऊंचा प्रकारनो शुभराग पण होय नहि. परंतु जेओ केवळ व्यवहारवडे
नवतत्त्वनी रागमिश्रित श्रद्धा करे छे तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे. शुद्धनयवडे एकला शुद्ध आत्माने जाण्या वगर
नवतत्त्वना विकल्पना भेद वडे आत्माने माने तेने सम्यग्दर्शन थाय नहि, अने सम्यग्दर्शन वगर भक्ति, दान
वगेरे करे ते बधुं ‘रणमां पोक’ छे. जेम जंगलमां सिंहना मुखमां पडेला हरणियानी पोक सांभळनार कोई नथी
तेम संसार दुःखथी उगरवा माटे सम्यग्दर्शन सिवाय कोई शरणभूत नथी.
परिपाटीना विकल्पमां रोकातां एकलो आत्मा प्रतीतमां आवतो नथी अने आत्मानो धर्म थतो नथी; माटे एक
आत्मामां ते नव तत्त्वना विकल्पो छोडीने अमने तो शुद्धात्मा ज प्राप्त हो. व्यवहारना भेदनुं लक्ष छोडीने
शुद्धनयना विषयभूत आत्मा ज अमने प्राप्त हो. –आवी भावना सम्यग्द्रष्टिओनी अने मुनिओनी छे. जेटले
अंशे भेद तूटीने आत्मामां अभेदता थाय तेटले अंशे शुद्धता छे, अने जेटलुं भेदनुं लक्ष रहे तेटलो राग छे; माटे
अहीं भेदने गौण करीने अभेदनी भावना छे. प्रथम अभेद स्वभावने ज्ञानथी जाणे तो तेनी भावना करे ने!
सत्य असत्यनो विवेक करीने जे सत्यनी हा पाडे छे तेने पण सत्यनो आदर छे. असत्नी मान्यता
छोडीने