: २२२ : आत्मधर्म आसो : २४७२
जेणे सत्यनी हा पाडी छे तेनुं वलण सत्य तरफनुं छे. सत्य आ ज छे, आना ज घूंटणथी सम्यग्दर्शन अने
केवळज्ञान थवानुं छे–एवो जे अंतरथी सत्यनो माहात्म्यभाव आव्यो ते ज केवळज्ञाननी प्रणालिका छे अर्थात्
ते ज मोक्षनी श्रेणीनो उपाय छे.
पुण्य–पापना विकल्प असत् छे. अने आत्मा त्रिकाळ सत् छे. आचार्यदेव कहे छे के, अमारे असत् एवा
नव तत्त्वोना विकल्पोनुं काम नथी पण सत् स्वभावमां एकाग्रता करीने वीतराग थवानी ज भावना छे. हुं
आत्मा छुं–एवो भेदनो विकल्प तोडीने शुद्ध स्वभावना अनुभवमां रही जाऊं. –एमां नय पक्षना विकल्पनी
मागणी नथी पण नयना पक्षनो विकल्प तोडीने शुद्धात्मानी प्राप्तिनी ज भावना छे.
बधा जीव ज्ञानस्वरूप छे, ज्ञाननी पर्यायना पांच प्रकार छे–मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अने
केवळज्ञान. तेमांथी केवळज्ञान तो साधकदशामां होतुं नथी अने अवधि तथा मनःपर्यय ए बे ज्ञान साधकपणे
कार्यकारी नथी केम के तेनो विषय परद्रव्य छे. बाकी रहेला मति अने श्रुत ए बे ज्ञान ज आत्माने साधकपणे
छे. तेमां पण मतिज्ञान ते तो ज्ञाननी प्रथम भूमिका छे एटले ते ज्ञान आत्माने सामान्यपणे जाणे छे पण
विशेष पडखांने ते जाणतुं नथी. श्रुतज्ञान आत्माना बधा पडखांने परोक्ष जाणे छे. श्रुतज्ञानथी आत्माने
जाणवाना बे प्रकार छे–१. त्रिकाळ एकरूप शुद्धस्वभावने जाणे तेने शुद्धनय कहेवाय छे अने २. क्षणिक पर्यायोने
जाणे तेने व्यवहारनय कहेवाय छे. हवे आ बेमांथी कया प्रकारे आत्माने मानवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे ते
विषय अत्यारे चाले छे.
बे नयोवडे आत्माने जाण्या पछी शुद्धनयना विषयने मुख्य करे अने व्यवहारनुं लक्ष छोडी दे, तो त्यां
एकांतरूप नयपक्ष नथी, पण भेदनो राग टाळीने स्वभावमां ढळ्यो छे. बंने नयोने जाणीने जो
अभेदस्वभावमां न ढळे तो नयोनुं ज्ञान शा कामनुं? बे नयोनुं ज्ञान ते अनेकांत छे परंतु तेनुं प्रयोजन तो
सम्यक्एकांत एवा शुद्धनयना विषयभूत शुद्धात्मानी प्राप्ति करवी ते छे.
जो बंने नयना ज्ञाननो ज स्वीकार न करे तो एक नयनो ज पक्ष रहेवाथी एकांतरूप मिथ्यात्व छे; अने
बंने नयने जाण्या पछी शुद्धनय तरफ न ढळे तो पण मिथ्यात्व टळे नहि. अहीं बंने नयनुं ज्ञान कर्या पछी
नयना विकल्पो छोडीने स्वभावमां ढळवानी भावना छे. नव तत्त्वो छोडीने एकला शुद्धात्मानी मागणी करी
तेमां शुद्धनयनो आग्रह नथी पण विकल्प तोडीने अभेद स्वभावमां ढळी जवुं छे, हजी अपूर्ण दशा छे तेथी
अभेद स्वभावनी एकाग्रता वडे पूर्णता करवी छे.
स्वभावमां ढळवानी भावना करनारने नव तत्त्वना विचारोनुं ज्ञान तो छे, परंतु तेना लक्षे विकल्प छे
माटे ते विकल्पने टाळवानी वात करी छे. आचार्य कहे छे के राग अने स्वभाव–ए बंनेने जाणीने अमे हवे
एकला स्वलक्षमां ढळीने वीतराग थवा मागीए छीए–एम रागनो नकार छे पण ज्ञाननो नकार नथी.
केवळज्ञान तो छे नहि, अने श्रुत ज्ञानमां पर्याय उपर लक्ष जतां विकल्प ऊठे छे तेथी अत्यारे पर्यायनुं लक्ष
छोडीने द्रव्यनी एकाग्रता वडे ते विकल्प तोडीने पूर्ण थवानी भावना छे अने पूर्ण थया पछी बंने पडखां एक
साथे जणाशे.
आ वात जिज्ञासुओने खास प्रयोजनभूत छे, आ वात चर्चीने नक्की करवी, न समजाय तो छोडी न
देवी पण अंदरोअंदर छणीने निर्णय करवो.
त्रिकाळस्वभावनुं अने रागनुं ज्ञान कर्या पछी स्वभाव तरफ ढळतां रागने गौण कर्यो, परंतु रागने
सदाय राख्या ज करवो–एवी भावना नथी. पण पूर्ण वीतराग थतां सुधी भेदना विकल्पो छोडीने अमारुं वलण
शुद्धात्मा तरफ ज हो, एम आचार्य भगवान कहे छे. पूर्ण केवळज्ञान थया पछी त्यां द्रव्य–पर्याय बंनेनुं ज्ञान
एक साथे छे, त्यां विकल्प नथी.
अहो! धोख धर्मकाळ वखते आठ वर्षनी महान राजकुमारी पण आवी स्वभावनी वात हरखथी समजी
जती, सांभळतां एम उल्लास आवी जाय के अहोहो! अमने अमारां चैतन्यनिधान मळ्यां. आवा उल्लासवडे
स्वभावनी प्रतीति करीने आत्मानुभव करती. तो मोटी उमरना जीवोने केम न समजाय?
आत्मानो स्वभाव समजवानो छे, जे आत्मा रुचि वडे समजवा मागे तेने जरूर समजाय. अहीं जे
शुद्धात्मानी प्राप्तिनी भावना कही ते भावना एकला आचार्यदेवनी न समजवी पण बधा ज आत्माओने आवा
शुद्धात्मानी ज भावना करवानी छे. नव तत्त्वोने जाणे पण जो राग रहित शुद्ध चैतन्य स्वभावने न जाणे तो
मिथ्याद्रष्टि छे; अने नव तत्त्वने पण जे न जाणे ते तो स्थूळ मिथ्याद्रष्टि छे.
प्रथम, चैतन्य स्वभावमां अंशे एकता थतां सम्यग्दर्शन प्रगटे छे अने मिथ्यादर्शन संबंधी विकल्पो