Atmadharma magazine - Ank 036
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४७२ आत्मधर्म : २२५ :
तेनी पाछळ पोताने शुद्धात्मानी रुचि अने बहुमान वधे छे तेनी मुख्यता छे–तेनाथी ज लाभ थाय छे पण
रागथी लाभ थतो नथी. आम विवेक पूर्वक भक्ति करे ते ज साचो भक्त छे.
१९. –श्री जिनप्रतिमानी भक्ति वगेरे–
याद राख! जेने आत्मानी दरकार नथी, देव–गुरु–धर्मनी भक्ति नथी अने संसारनी रुचिमां लीन थई
रह्यो छे ते दुर्गति जनार छे. सत्ना आदर वगर बेभानपणे असाध्य मरण थाय छे ते नरक–निगोदनुं कारण
छे. भगवाननी भक्ति वगर भवनुं निवारण थवानुं नथी. साक्षात् प्रभु तथा वीतरागी संत–मुनिराज अने
तेओनी प्रतिमानुं पूजन, वंदन, भक्ति, प्रभावना, महोत्सव अनादिथी देवेन्द्रो अने चक्रवर्तीओ पण करता
आव्या छे, तेनो जे निषेध करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने देव–गुरु–धर्मनी भक्ति जराय नथी. हे नाथ! जो तारा
चरणनी भक्ति न होत तो आ जगतना जीवोनो जन्म–मरणथी उद्धार केम थात?
कोई एम माने के– ‘समयसारनी वात सहेली छे केम के तेमां शुद्धात्मा सिवाय बीजुं कांई करवानी वात
आवे नहि;’ तो ते यथार्थ समज्यो ज नथी. अरे भाई! जेने शुद्धात्मानी समजण अने महिमा थाय तेने
वीतरागनी भक्ति उछळ्‌या वगर रहे ज नहि. शुद्धात्माना माहात्म्यवाळो जीव ज्यां ज्यां शुद्धात्मा भाळे त्यां
तेने अंतरथी उमळको आवे ज.
पं. बनारसीदासजीए कह्युं छे के–
‘जिनप्रतिमा जिन सारखी, नमै बनारसी ताहि. ’
भक्ति उछळतां कहे छे के जिन प्रतिमा जिनदेव समानज छे. हे जिनप्रतिमा! तारामां एक वाणी नथी
पण तारी स्थिर शांत वीतरागी मुद्रा आत्मानो स्वभाव ज दर्शावी रही छे. साक्षात् भगवान पण कांई हाथमां
लईने आत्मा देखाडता नथी. तमे पण वीतरागीभाव ज दर्शावी रह्या छो–आम प्रतिमा प्रत्ये भक्ति उछळे छे.
पण जेने जिनदेवनो महिमा नथी अने वीतरागी भावनी रुचि नथी तेने आवी भक्ति उछळती नथी.
२०. –वीतरागनी स्तुति करनारनो विवेक–
हे नाथ! आपनी स्तुति वगर जन्ममरणनो नाश नथी. आपने ओळखीने आपनी स्तुति करी तेणे
वीतरागभावनी ज स्तुति करी एटले हवे ते रागनो आदर करे नहि. आम जेणे वीतरागभाव अने रागभाव
वच्चे भेद पाडीने वीतरागभावनो नादर कर्यो ते क्रमेक्रमे राग टाळीने वीतराग ज थवानो. हे नाथ, ए आपनी
ज भक्तिनो प्रभाव छे, माटे आ जगतमां आप ज जन्म–मरण टाळनार छो.
‘कंकर एटला शंकर अथवा पत्थर एटला परमेश्वर’ एम माने ते महा अविवेकी छे; हे देव, आपना
सिवाय अन्यने पण जे माने ते महा मूढ अविवेकी छे. अहो! स्त्री अने माता वच्चे विवेक करे छे अने साचा
देव अने कुदेव वच्चे विवेक न करे–ए केटली मूर्खाई? हे प्रभु! तने छोडीने कुदेवादिने मानवा ते अनंत संसारनुं
कारण छे.
२१. –भक्तजीव धन–वैभव मागे नहि–
धर्म धर्मीथी शोभे छे, पण धर्म धनथी शोभतो नथी; आथी ज्ञानीने धननो अहंकार होतो नथी. धर्म
धर्मात्माना आधारे छे पण पैसाना आधारे धर्म नथी तेथी धर्ममां धर्मात्मानो आदर छे. अबजोनी मिल्कतवाळा
धर्मात्मा कहे छे–हे नाथ! पूर्णानंदी प्रभु! अमे आपना दास छीए, अमे आपनी भक्ति कई रीते करीए?
अमारुं सर्वस्व अर्पण करीए तोपण तारी चरणरज छीए, अमे शुं करी शकीए? अमने तो तारी भक्ति ज हो.
तारी भक्ति सिवाय धन–वैभवने अमे ईच्छता नथी. आ जगतमां तारी भक्तिना प्रतापे अमारा जन्म–
मरणनो नाश थई जशे; तेथी अमने एक तारी भक्ति ज हो.
२२. –भक्तिनी भावनामां ज्ञानी अने अज्ञानी वच्चे तफावत–
ए खास ध्यान राखवुं के–आ ओळखाण सहितनी भक्ति छे, आमां एकलो शुभराग न समजवो, पण
ओळखाण अने शुद्ध स्वभावनी रुचि छे ते ज लाभनुं कारण छे. ‘तारी भक्ति सिवाय बीजुं ईच्छता नथी’
एटले शुं? शुं आमां भक्तिना शुभरागनी ईच्छा छे? नहि; शुभरागनी ईच्छा नथी. पण ‘भक्ति सिवाय बीजुं
ईच्छता नथी’ एटले के हवे अमने अशुभराग तो कदी पण न आवो. अने आ जे शुभराग छे ते एकलो लांबो
वखत टकी शकशे नहि, एटले हवे शुद्धात्मानी प्राप्ति थई जशे–आवी तेमां भावना छे. अज्ञानीने शुद्धतानी
खबर नथी अने ते एकला शुभराग वडे लाभ माने छे; तेने साची भक्ति होती नथी.