Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७३ः ९ः
–प्रभुश्री महावीर भगवाननो तपकल्याणिक–
महोत्सव
श्रीवर्द्धमानकुमार, आत्मज्ञानी, धीर, वीर, सौम्य राजकुमार हता; महान राज्यवैभवना संयोग वच्चे रहेवा
छतां बालपणथी ज तेओ संसारथी विरक्त हता...सांसारिक भोगमां तेमने कदी सुख भासतुं नहि...
...श्रीवर्द्धमान कुमार धीमे धीमे युवान थया त्यारे एक दिवसे सिद्धार्थ महाराजाए तेमना प्रत्ये कह्युं– प्रिय
वर्द्धमान! हवे तमे पूर्ण युवान थई गया छो, तमारी गंभीर मुद्रा, विशाल आंखो, उन्नत ललाट, प्रशांत वदन–ए
बधुं बतावी रहेल छे के तमे महापुरुष छो, तमारामां चंचळता जरापण रही नथी. हवे तमारी आ दशा राज्य कार्य
संभाळवानी छे. हवे तमारा विवाह करीने तमने राज्य सोंपीने हुं संसारनी झंझटोथी छूटीने आत्मसाधन करवा
चाहुं छुं...
पिताश्रीनां वचनो सांभळतां श्रीवर्द्धमानकुमारनुं प्रफुल्ल मुखमंडळ एकदम गंभीर थई गयुं, जाणे के तेओ
कोई ऊंडा चिंतवनमां पडी गया होय! थोडीवार शांति प्रसरी गई....त्यां श्री वर्द्धमानकुमारे पिताजी सामे जोईने
धीमेथी शांत अने गंभीर स्वरे कह्युं–पिताजी! ए माराथी नहि थई शके...जे संसार झंझटोथी आप बचवा चाहो छो
ते ज संसार झंझटोमां आप मने फसाववा शा माटे चाहो छो? ओह! मारुं आयुष्य ७२ वर्षनुं ज छे, तेमां आज
त्रीस वर्षो तो व्यतीत थई गयां. हजी आ अल्प जीवनमां मारे घणुं आत्मसाधन करवानुं बाकी छे. पिताजी! हुं हवे
आत्मसाधन पूर्ण करीश! लोको धर्मना नाम पर आपस–आपसमां केवा झगडी रह्या छे? बधा एक बीजाने पोता
तरफ खेंचवा मागे छे–पण साची खोज करता नथी अने दंभी थई रह्या छे. धर्माचार्यो प्रपंच फेलावीने खोटा धर्मनी
दुकानो चलावी रह्या छे अने भोळा अज्ञानी जीवो ठगाई जाय छे... हुं ते पथभ्रांत जीवोने साचो मोक्षमार्ग
बतावीश...माटे...
वचमां ज सिद्धार्थ राजाए कह्युं–पण, ए तो घरमां रहीने पण थई शके छे...
...नहि पिताजी! ए मात्र आपनो राग छे. अमे तो हवे जिनदीक्षा अंगीकार करीने बाह्यअभ्यंतर निर्ग्रंथ
थई अमारा केवळज्ञानने साधीशुं. हे तात! एक वखत आप ए भूली जाओ के ‘वर्द्धमान मारो पुत्र छे अने हुं तेनो
पिता छुं.’ ए रीते जोतां आपनी विचारधारा परिवर्तित थई जशे. बस, पिताजी मने आज्ञा आपो, जेथी हुं मारा
पवित्र आत्मसाधनने शीघ्र पूर्ण करुं, अने पवित्र सिद्ध दशाने प्राप्त करुं!
श्रीवर्द्धमानकुमारना पुरुषार्थनी मक्कमता अने तेमना अपार वैराग्य पासे सिद्धार्थराजा विशेष न बोली
शक्या...‘शरूआतमां धार्युं हतुं कंईक, अने थयुं कंईक बीजुं ज’–एम मनमां सोचतां महाराजा मौन रही गया.
* * * *
... उपर्युक्त पिता–पुत्रनो संवाद सांभळतां महाराणी त्रिशला देवी पुत्रप्रेमथी व्याकूळ थई गयां...परंतु ते
वखते चतुर वर्द्धमानकुमारे धैर्यपूर्वक बुद्धि भरेला शब्दोमां तेमनी पासे पोतानुं समस्त कर्तव्य समजावी दीधुं.
पोताना आदर्श अने पवित्र विचार माता सामे रजु कर्या. अने वैराग्यभरेलां तत्त्ववचनोथी संसारनी दुषित
परिस्थितिनुं वर्णन करीने कह्युं–हे मात! हवे मने स्वतंत्रपणे आत्मसाधन करवानी रजा आपो!
एक क्षणभर तो माता कांई न बोली शक्यां; टगमगती आंखे तेमणे भगवान महावीर सामे जोयुं.
महावीरना चहेरा उपर ते वखते ज्ञानथी भरेला वैराग्यनी दिव्य झलक देखाई रही हती. तेमनी लालसाशून्य,
सरल, वीतरागी मुखमुद्रा जोतां मातानी व्याकूळता दूर थई, पुत्र–प्रेमने भूली गई...केटलीक वार सुधी तो ए ज
प्रमाणे अनिमेषद्रष्टिए तेमना प्रत्ये जोई रही...महावीरने जोईने ते पोते पोताने बहु ज धन्यवाद आपवा
लागी...तेनुं हृदय अति प्रसन्न थयुं...
थोडीवारमां अत्यंत गंभीरस्वरोमां माताजी बोल्यां–ओ देव! वर्द्धमान! जाओ, खुशीथी जाओ!
आत्मसाधनने शीघ्र पूर्ण करीने जगतनुं कल्याण करो! हवे हुं आपने ओळखी शकी, आप मनुष्य नथी पण देव छो,
आपना जन्मथी हुं धन्य थई छुं. आप मारा पुत्र नथी, हुं आपनी माता नथी; पण आप तो एक आराध्य–देव छो
अने हुं