Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 21

background image
ः १०ः आत्मधर्मः ३७
आपनी एक सेविका छुं...हवे मारो पुत्रमोह बिल्कुल दूर थई गयो छे... आटलुं कहेतां माताजीनी आंखमांथी आंसु चाल्यां
गयां, तेओ विशेष न बोली शक्यां...तेमनी मुद्रा पर शोक नहि पण संतोष हतो...अडग वैराग्यमूर्ति महावीर मौन
हता...तेमनी आंखो नीची ढळी गई हती. अहा! ए वखतनुं फाटफाट वैराग्यमय द्रश्य,...ए तो संसारवृक्षने जडमूळथी
उखेडी नाखवा माटेनी अवगाहना ज करी रह्युं हतुं ने! !
मातानां वचनो सांभळीने महावीरप्रभुना हृदयमां अधिक उत्साह प्रेराणो..आ प्रमाणे पिता–मातानी रजा
मेळव्या पछी तेओए स्थिर चित्त थईने थोडीवार आत्मविचार तथा संसार परिस्थितिनो विचार कर्यो अने वनमां जईने
जिनदिक्षा लेवानो द्रढ निश्चय करी लीधो...
ते वखते लोकांतिक देवोनुं सिंहासन कंपायमान थयुं, तेथी तेओए जाण्युं के प्रभुश्रीने दीक्षा अंगीकार करवानो
अवसर आवी लाग्यो छे...तरत ज ते लोकांतिक देवो प्रभु पासे आव्या अने तेमनी स्तुति करीने वैराग्य भरेलां वचनो
वडे तेमना विचारोनुं समर्थन कर्युं...पोतानुं कार्य पूर्ण करीने लोकांतिक देवो पोताना स्थाने चाल्या गया.
...लोकांतिक देवो गया पछी तरत ज असंख्य देवोनां टोळां जय–जय घोषणानो पुकार करता आकाश मार्गे
के–
(गाजे पाटणपुरमां– ए राग)
वंदो वंदो परम विरागी त्यागी जिनने रे...
थाये जिन दिगंबर–मुद्राधारी देव..
श्री महावीर प्रभुजी तपोवनमां संचर्या रे...वंदो...
रूडो तप–कल्याणिक आजे प्रभुनो दीपतो रे...
मंगल हय गय रथ नर ध्वज ने स्वस्तिक...
शोभित चंद्रप्रभा शिबिकामां रत्न सिंहासने रे...वंदो...
जगत् प्रकाशक शांति धारी अहो तुज दिव्यता रे...
साध्युं ध्यान ध्येय ने ध्याता एकाकार...
एवा वनविहारी प्रभुजी वीतरागी थया रे...वंदो... (जिनेन्द्र स्तवन मंजरी, पा. १८४)
–इत्यादि प्रकारे तप–कल्याणकना मंगळिक सहित प्रभुश्रीनी पालखी धीरे धीरे ‘षंड’ नामना वनमां आवी
पहोंची; पालखीमांथी वैराग्यमुद्राधारी प्रभुजी उतर्या; अने वननी शिला पर बिराज्या; थोडीवारमां प्रभुजी उभा थया अने
पूर्वदिशा तरफ मुख राखीने ‘ॐ
नमसिद्धेभ्यः’ ए प्रमाणे नमस्कार करीने, समस्त वस्त्राभूषणो उतारी नाख्या अने
पंचमुष्टिओथी केश उखेडी नाख्या. आ रीते कारतक वद १० ना मंगळ दिवसे संध्या समये इन्द्र, सिद्ध अने आत्मानी
साक्षीपूर्वक श्रीवर्द्धमानकुमार बाह्याभ्यंतर परिग्रहने छोडीने श्री जिनदीक्षा धारण करीने मुनि थया. श्रीवर्द्धमानमुनि तरत
ज त्यां शुद्धात्मस्वरूपना ध्यानमां लीन थया अने ते ज वखते तेओश्रीने मनःपर्यय ज्ञान प्रगट थयुं...
श्री महावीर भगवंतना तप कल्याणक महोत्सवने पूरो करी समस्त देव–देवेन्द्रो पोतपोताना स्थाने चाल्या
गया...पण गई कालना राजकुमार वर्द्धमान अने आजना श्री वर्द्धमानमुनिश्वर पोतानी स्वरूप–साधनामां लीन हता...
(श्री चोवीस तीर्थंकर पुराणना आधारे)
शांति–समाधि
भाई! जो तारे आत्मशांति जोईती होय तो, आत्मा पोते पोतामां ज स्वक्षेत्रे शांतिरूप बिराजे छे तेनुं ज लक्ष
कर! शांतिनुं स्थान ते ज छे. जो स्वलक्ष चूकीने परक्षेत्रे लक्ष रही जशे तो आत्माना स्वभावनी शांति नहि आवे. परक्षेत्र
गमे तेम हो पण तुं तारा स्वक्षेत्रे लक्ष राखीने आत्माना स्वरूपनी शांतिनुं वेदन करतां समाधि मरणवडे देह छोड.