Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः ३७
सुधी तेने खवराववा वगेरेनी आ जीवनी इच्छा टळे ज नहि; तेथी मडदानुं मडदां तरीके साचुं ज्ञान करवुं ते ज
इच्छा टळीने शांति थवानो एकमात्र उपाय छे.
मडदांने मडदा तरीके जाणतां तेने वस्तुस्थितिनो साचो ख्याल
आवे छे अने तेम थतां, मडदांने खवराववा वगेरेनी तेनी इच्छा टळी जाय छे, अने तेथी तेटला पूरती तेने शांति
थाय छे. आ रीते, साचुं ज्ञान ज सुखनुं कारण छे अने अज्ञान ज दुःखनुं कारण छे. (अहीं मात्र मडदां संबंधी वात
छे तेथी ‘साचुं ज्ञान’ कहेतां मात्र मडदां संबंधी साचुं ज्ञान समजवुं परंतु ‘सम्यग्ज्ञान’ नी वात न समजवी, अने
‘सुख’ कहेतां मडदां संबंधी इच्छाना अभावथी जे शांति थई छे ते अपेक्षाए सुख समजवुं; परंतु सर्वथा
निराकुळताजन्य सुख अहीं न समजवुं. सम्यग्ज्ञान अने निराकुळ सुख संबंधी हवे स्पष्ट करवामां आवे छे.)
सुरेशः– में उपर जे प्रश्न पूछयो हतो ते द्रष्टांत तरीके पूछयो हतो, हवे सिद्धांत समजवा माटे पूछुं छुं के, आ
जीव ‘शरीर वगेरे पर द्रव्यो सारां रहे तो मने सुख थाय’ एम मानतो होवाथी शरीर वगेरे पर द्रव्योने पोतानी
इच्छा प्रमाणे फेरववाना भाव करे छे, परंतु पर द्रव्यो आ जीवनी इच्छाप्रमाणे परिणमता नथी तेथी आ जीव
निरंतर आकुळतानुं वेदन करीने दुःखी ज थई रह्यो छे, ते दुःख मटवानो उपाय शुं छे?
दीनेशः– स्थुळपणे जोईए तो ते जीवने दुःख टाळवा माटे बे उपाय जणाय छे–(१) कां तो ते जीवनी इच्छा
प्रमाणे ज शरीरादि सर्व पर द्रव्यो परिणमे तो तेनुं दुःख टळे; अने (२) कां तो पर द्रव्योने फेरववा संबंधीनो भाव
आ जीव पोते फेरवी नाखे, तो तेनुं दुःख टळे.
हवे विशेष विचार करतां स्पष्ट जणाय छे के, पहेलो उपाय तो तद्न अशक्य छे एटले के खरेखर ते उपाय
ज नथी; केमके पर द्रव्यो जीवथी जुदा छे तेथी तेओ कदी पण जीवनी इच्छाने आधीन परिणमवाना नथी. पर द्रव्यो
आ जीवनी अपेक्षाए मडदां छे, जे मडदुं खाय–पीवे नहि तेम पर द्रव्यो पण आ जीव साथे कांई संबंध धरावता
नथी.
ज्यां सुधी पर द्रव्योने पोताथी भिन्नपणे नहि जाणे त्यां सुधी तेनुं दुःख कदी पण मटवानुं नथी. पहेलो
उपाय जो के अशक्य ज छे तो पण अज्ञानी जीव ते उपाय करीने दुःख मटाडवा चाहे छे, परंतु तेनी इच्छा प्रमाणे
पदार्थो नहि परिणमता होवाथी तेना ऊंधा भावनुं दुःख तेने हंमेशां बन्युं ज रहे छे.
बीजो उपाय के जे सत्य छे ते अज्ञानीनी समाजमां ज आवतो नथी, बीजो साचो उपाय ज्ञानीओ ज समजे
छे. आ उपाय स्वाधीन छे अने जीवथी ते ज थई शके छे. बधाय पर द्रव्यो माराथी सर्वथा जुदा छे, मारामां तेमनो
अभाव छे–एम ज्यां सुधी जीवने विश्वास न आवे त्यां सुधी पर द्रव्यने फेरववानी तेनी इच्छा टळे ज नहि. परंतु
जो पर द्रव्योने पोताथी भिन्नपणे जाणे तथा हुं तेमनुं कांई ज करी शकतो नथी–एम विश्वास करे तो ते परद्रव्योने
फेरववानी इच्छा करे नहि, परंतु ते पर द्रव्यो जेम स्वतंत्रपणे परिणमे तेम तेने मात्र जाण्या करे, अने ते परद्रव्यना
गमे तेवा परिणमनमां पण पोताने अंतरथी आकुळता न थाय, केमके तेने प्रतीत छे के ते द्रव्योना परिणमन साथे
मारे कांई संबंध नथी. माटे स्वनुं अने परनुं भिन्नपणे साचुं ज्ञान करवुं तथा तेओ एकबीजानुं कांई ज करी
शकता नथी एवी प्रतीत करवी ते ज इच्छा टाळीने शांति थवानो एक मात्र उपाय छे.
स्व–पर द्रव्योने भिन्न
जाणतां तेने वस्तुस्थितिनो साचो ख्याल आवे छे; अने तेम थतां ‘हुं पर द्रव्योनी क्रिया करी शकुं’ एवी ऊंधी
मान्यता टळी जाय छे तेथी अनंत पर द्रव्योनो अहंकार अने तेना कर्तृत्वनी अनंती इच्छा टळी जाय छे अने तेटले
अंशे स्वभावनी शांति अने सुख प्रगटे छे. आ रीते, साचुं ज्ञान ज सुखनुं कारण छे, अने अज्ञान ज दुःखनुं कारण
छे. सर्वत्र सर्व प्रसंगे साचुं ज्ञान ए ज एक मात्र सुखनो उपाय छे. माटे साचुं ज्ञान करो!
जीवनो स्वभाव ज ज्ञान करवानो छे, परद्रव्योने पण जाणे खरो, परंतु परद्रव्योने जाणतां ज्ञान साथे परनुं
करवानो अहंकार करे छे ते अहंकार ज दुःखनुं कारण छे. ज्यारे परद्रव्योने भिन्नपणे समजे त्यारे ज्ञान साथे
परद्रव्यनो अहंकार करे नहि. तेथी एकलुं ज्ञान रह्युं, ते ज्ञान ज सुखनुं कारण छे.
स्वद्रव्यनुं साचुं स्वरूप यथार्थपणे जाण्या वगर परद्रव्यनो अहंकार टळी शके नहि, माटे ज्ञान वडे पोताना
शुद्धात्मस्वरूपने ओळखवुं.
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