Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 21

background image
ः १२ः आत्मधर्मः ३७
(४७) धर्मना जे चार प्रकार कह्या तेनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे; ते सम्यग्दर्शनना परिणामने सीधा न जाणवा
पण बीजा गुण उपरथी तेने ओळखवुं ते व्यवहार छे. निज शुद्धात्मानी रुचि–प्रतीतरूप परिणाम ते सम्यग्दर्शननुं
निश्चय लक्षण छे अर्थात् ते प्रतीत पोते ज सम्यग्दर्शन छे. आ सम्यग्दर्शननुं स्वरूप अंतर संशोधनथी जणाय तेवुं
छे. पोताना तत्त्वनी अंतर शोध–खोळ न करे तो आ अवतार शुं कामनो? सम्यग्दर्शन सीधुं छद्मस्थने न जणाय,
परंतु ज्ञान द्वारा तेनो निर्णय करी शकाय छे. अने ज्ञान तो पोताने स्वसंवेदनरूप छे. शुद्धात्मानी अनुभूतिरूप
ज्ञान–परिणाम थाय ते पोताना ज्ञानना स्वसंवेदनमां आवी शके छे. अने ज्यां ज्ञाननुं स्वसंवेदन होय त्यां
सम्यग्दर्शन अवश्य होय छे. ज्ञाननी निर्मळ अनुभूति थतां पोताने निःशंक स्वसंवेदन थाय छे के, अहो! आ ज्ञान
निर्मळ छे, तेमां भव नथी, विकार नथी, ते पूर्ण थवानी हवे तैयारी छे; आवा पूर्णताना पडघाने ज्ञान पोते जाणे छे.
बधो अनुभव वाणीथी पूरो कही न शकाय परंतु स्वसंवेदनमां तो पूरेपूरो आवी शके छे. जेम घी अने तीखां
मरचांना स्वादनुं वेदन थई शके छे परंतु वाणीमां ते संतोषकारक वर्णवी शकातुं नथी, तेम शुद्धस्वभावना अनुभवनुं
वेदन थाय छे परंतु ते वाणीद्वारा बधुं वर्णवी शकातुं नथी. जे जीवने सम्यग्दर्शन थाय ते जीवने स्वसंवेदनथी पोताने
खबर पडे छे.
(४८) दया–हिंसा के व्रत, तप वगेरेना शुभपरिणामथी रहित शुद्धचैतन्यस्वभावनो आस्वाद थाय ते
भेदज्ञाननी अनुभूति छे, अने ज्ञाननी अनुभूति ते सम्यग्दर्शननुं बाह्यलक्षण छे. अहीं अनुभूतिने बाह्यलक्षण कह्युं
तेथी एम न समजवुं के ते अनुभूति आत्माथी जुदी छे. अनुभूति आत्माथी जुदी नथी, परंतु अहीं सम्यग्दर्शनने
ओळखवा माटे गुण भेदथी वर्णन छे; ज्ञान गुण अने श्रद्धागुण जुदा छे माटे ज्ञाननी अनुभूतिने सम्यग्दर्शननुं
बाह्यचिह्न कह्युं छे. ज्यारे अभेद विवक्षाथी कथन होय त्यारे तो अनुभूति पोते ज सम्यग्दर्शन छे–एम पण
कहेवाय छे.
(४९) आत्मामां अनंत गुणो छे, ते दरेक गुण एक बीजाथी जुदा छे. ते जुदा गुणोने एक बीजा वडे
ओळखाववा ते व्यवहार छे; सर्वे गुणो असहाय स्वतंत्र छे ते निश्चय छे अने ते गुणोने एकबीजानी सहाय छे एम
ओळखाववुं ते व्यवहार छे. श्रद्धागुणने श्रद्धागुण वडे ज ओळखाववो ते निश्चय छे, अने ज्ञानगुणद्वारा श्रद्धागुणने
ओळखाववो ते व्यवहार छे. सम्यग्ज्ञानमांथी सम्यग्दर्शन प्रगटतुं नथी परंतु सम्यग्ज्ञान वडे सम्यग्दर्शन ओळखाय
छे. जो एक गुणमांथी बीजो गुण प्रगटे तो नवा गुणनी उत्पत्ति थाय अथवा जो श्रद्धा–ज्ञान बे गुण भेगा थईने
सम्यग्दर्शन पर्याय प्रगटे तो गुणनो लोप थाय अने गुणनो लोप थतां द्रव्यनो ज लोप थाय. माटे दरेक गुणने
यथार्थस्वरूपे ओळखवा जोईए.
(प०) आत्मामां अनंतगुणो छे, ते अनंतगुणोना अविश्वासे अनंतकाळथी अनंतभवमां दुःख भोगव्युं.
छतां आत्माना गुणोनो नाश थयो नथी; आवी जेने प्रतीत नथी तेने आत्माना त्रिकाळीपणानी प्रतीत नथी.
आत्मा सत् छे, अनादिथी छे; अनादिथी आत्माए शुं कर्युं? अनादिथी अज्ञानभावे विकार ज कर्यो छे. विकार
पलटाव्या कर्यो छे अने तेथी भव पलटाव्या छे. ए रीते अनादिथी आत्मा विकारमां टकयो छे. जो विकारमां न टकयो
होत तो मोक्षदशा प्रगट होत. पूर्वभवोनी वेदनाने भले भूली गयो, ते पूर्वभवनुं वेदन वर्तमान न थाय तोपण
ज्ञानना न्यायवडे तेनो स्वीकार थाय छे. पूर्वे जे अनंतभव कर्या तेने वर्तमानमां जे ज्ञान अनुमानवडे स्वीकारे छे ते
ज्ञान करनार आत्मा छे के पर? जे आत्मा वडे नक्की कर्युं ते ज्ञान साचुं होय के खोटुं? आत्मानुं सत्पणुं कबुलतां
पूर्वना वेदननी कबुलात ज्ञानमां आवी जाय छे. भव संबंधी जातिस्मरणज्ञान थाय तेने तो पूर्वनुं वेदन विशेष
जणाय. परंतु जातिस्मरणज्ञान न होय तोपण आत्मानी स्व जातनुं स्मरण करतां पूर्वनी अनंतकाळनी हैयातिनी
प्रतीत आवी ज जाय छे. अहो, अनंत भवभ्रमणमां आवो अवतार पामीने आत्मानो अनुभव करवाने बदले
शुभरागमां सलवाई जाय छे. जीवन टकाववा माटे झेरना टेका न होय तेम चैतन्य स्वरूप आत्माने रागनो आश्रय
न होय. एकवार जो जिज्ञासाथी आवा चैतन्यनो निर्णय करे तो भवरहितपणानी प्रतीत थई जाय.
(प१) सम्यग्दर्शन साथे शुद्धआत्मानी अनुभूति होय छे, ते अनुभूति उपरथी सम्यग्दर्शननो निर्णय थई
शके छे. शुद्धआत्मानी अनुभूति केवा प्रकारनी थाय छे ते जणावे छे–जे आ शुद्ध आत्मा छे ते ज हुं छुं, ज्ञान ज हुं छुं
पण ज्ञानमां जे रागादि जणाय छे