Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७३ः १३ः
ते रागादि हुं नथी केम के तेओ मारा स्वभावमांथी उपज्या नथी–जेने ज्ञानवडे आवी ओळखाण थाय छे तेने
नियमथी सम्यग्दर्शन होय ज छे. भेदज्ञानवडे रागरहित एकला ज्ञाननो अनुभव करवो ते ज आत्मानी
अनुभूति छे.
(प२) अहीं शुभ इच्छाने सम्यग्दर्शननुं कारण कह्युं नथी. शुभ इच्छा तो पोते दुःखरूप छे, ते इच्छा बाह्य
सामग्रीने फेरवती नथी, तेम ज श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे कोईपण गुणनी निर्मळताने ते नजीक करती नथी. इच्छा
कोईपण गुणने मदद तो करनार नथी पण ते चारित्र गुणनो विकार छे. रागवडे सम्यग्दर्शननो निर्णय थतो नथी.
ज्ञान प्राप्तिनी इच्छा करे अने त्यां जो ज्ञान प्राप्त थाय, तो ते ज्ञान इच्छावडे थयुं नथी; पण ज्ञान स्वभाव तरफनी
एकाग्रतावडे थयुं छे, जे इच्छा थई ते तो ज्ञानना विकासने अटकावनार छे. आ रीते जाणीने रागथी भिन्नपणे
ज्ञाननी अनुभूति करवी ते सम्यग्ज्ञान छे. शुद्धचैतन्यआत्मानी अनुभूति ते शुद्धनयनो विषय छे, पण इच्छा–
रागादि ते शुद्धनयनो विषय नथी. ज्यारे शुद्धनयवडे शुद्ध आत्मानी अनुभूति करे त्यारे एवुं श्रद्धान पण थाय छे के
शुद्धस्वचतुष्टयस्वरूप ते ज हुं छुं. जुओ, आ श्रद्धानमां पर्यायनी पण पूर्णतानो ज स्वीकार कर्यो. वर्तमान दशामां जे
रागादि छे ते मारुं स्वरूप नथी, पण रागादिरहित स्वचतुष्टयस्वरूप ते ज हुं छुं.
जेणे आत्माने चतुष्टयस्वरूपे स्वीकार्यो तेने ज्ञानमां पूर्ण पर्यायनी उपादेय बुद्धि रही, अपूर्णता अने
विकारमां हेयबुद्धि रही अने निमित्तनुं ज्ञान रह्युं. आवो स्वीकार सम्यग्दर्शननी साथे होय छे. आ सम्यग्दर्शन
वखतनी वात छे.
स्वभावनी अनुभूति करतां सम्यग्द्रष्टि जीव एम अनुभवे छे के हुं अनंत चतुष्टयस्वरूपे ज छुं. ‘भविष्यमां
अनंतचतुष्टयरूपे थईश’ एम विकल्प नहि, परंतु वर्तमानमां ज राग अने अपूर्णतारहित अनंतचतुष्टयस्वभावे
छुं; सम्यग्द्रष्टि जीवने शुद्धनयवडे आत्मानी एवी अनुभूति होय छे. मारा अनंतचतुष्टयस्वरूप सिवायना बधा
भावो संयोगजनित छे, ते मारो स्वभाव नथी.
(प३) निशाळमां खोटी रीते ऊंचा कलासमां चडावी दीधो होय अने ज्यारे न्यायवंत परीक्षक आवे अने
परीक्षा करीने तेने नीचला कलासमां उतारी मूके, त्यारे जो ते विद्यार्थी रखडाउ होय तो तो ते भणवानुं ज छोडी दे,
पण जो सारो विद्यार्थी होय तो समजीने फरीथी बराबर अभ्यास करे. तेम जीव अज्ञानपणे पोताने सम्यग्दर्शन अने
व्रत–तप सहित मानी बेठो होय, पण ज्यारे साचा ज्ञानी गुरु तेने समजावे के भाई, तारी भूल छे, शुभरागमां तुं
धर्म मानी बेठो पण ते अज्ञान छे. जे चोराशीना अवतारनो रखडाउ होय ते जीव तो आवुं सत्य सांभळवानी ज
ना पाडे अने कहे के–जो एम मानशुं तो आपणा व्रत–तप छूटी जशे. ए रीते संसारनी रुचिवाळा जीवो तो
अज्ञानने ज पोषे छे, अने साचुं ज्ञान करवानो नकार करे छे. पण जे साचो जिज्ञासु होय ते जीव तो ते सत्य
सांभळीने भूल छोडीने यथार्थ सत्य समजवानो प्रयत्न करे छे. पोताने आत्मामांथी एम ऊगवुं जोईए के मारे तो
मारा आत्मानुं सत्य समजवुं छे. गमे तेम प्रयत्न करीने, पूर्वना आग्रह छोडीने आ अवसरे सत् स्वरूप समजवुं छे,
फरी फरी आवा अवसर आववाना नथी. अहो, जगत व्रतादिना रागना अहंकारमां रोकाई गयुं छे, पण पूर्ण
स्वभावनी साक्षी आपीने अल्पकाळमां परिपूर्ण परमानंद सिद्ध दशा आपे एवुं जे सम्यग्ज्ञान तेनी जगतने किंमत
नथी.
(प४) आत्माने कबुलनारूं ज्ञान भवरहित छे. जे ज्ञानपर्याये स्वसन्मुख थईने एम कबुल्युं के ‘मारुं
आत्मतत्त्व रागरहित ज्ञान स्वरूप छे,’ ते ज्ञान पोते रागरहितपर्यायपणे ज रहेवा योग्य छे. जेणे आत्मस्वभावने
स्वीकार्यो ते ज्ञान रागने पोतामां स्वीकारे नहि एटले ते ज्ञानमां अनंतचतुष्टयनी प्रतीत पण भेगी ज छे. जे ज्ञाने
पूर्ण स्वभावने मान्यो तेने पूर्णने पहोंचवानी उपादेयबुद्धि अने रागनी हेयबुद्धि थई एटले तेने पूर्ण तरफनो ज
पुरुषार्थ जागशे, पूर्ण तरफना पुरुषार्थमां, वच्चे पडवानी शंका होय ज नहि. जे पुरुषार्थमां पडवानी शंका छे अने
पूर्णतानी प्रतीत नथी ते पुरुषार्थ पूर्ण स्वभावनी श्रद्धावगरनो छे. श्रद्धाना भावमां पाछा पडवानी तो वात ज नथी
पण अपूर्णतानोय स्वीकार नथी. चैतन्यना यथार्थ श्रद्धा–ज्ञाननुं जोर चडतां केवळज्ञान थाय छे. आ रीते जे ज्ञान
पूर्ण स्वभावने स्वीकारनारुं छे ते ज्ञान भवरहित छे. पूर्ण स्वभावनी अनुभूतिरूप ज्ञान ते सम्यग्दर्शननुं मुख्य
बाह्य चिह्न छे. वस्तु परथी भिन्न पूर्ण छे, जो परनो संबंध कल्पे तो अपूर्णता आवे, पण वस्तु स्वथी परि–