Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २ः आत्मधर्मः ३७
वर्ष चोथुंसळंग अंककारतकआत्मधर्म
अंक पहेलो३७र४७३
धन्य ते सुप्रभात
“आज पवित्र आत्मा श्री महावीर प्रभुजी सदाने माटे संसारथी मुक्त थईने सिद्धदशा पाम्या अने श्री गौतम प्रभु
केवळज्ञान पाम्या” ए सांभळीने कया मुमुक्षुनुं हैयुं आनंदथी न नाची ऊठे!!!
र४७र वर्ष पहेलां बनी गयेला पवित्र प्रसंगने वर्तमानपणे याद करीने भव्य जीवो उत्साहथी उजवे छे–तेओ
खरेखर तो पोतानी ज पूर्ण पवित्र दशाने भावथी निकट लावीने तेनो उत्साह करे छे....
तीर्थधाम श्री पावापुरीमां आसो वदी ०) ) ना प्रातःकाळमां श्री महावीर प्रभुजीए योगनिरोध कर्यो अने कर्मो तथा
शरीरना संयोगरहित थईने अशरीरी सिद्ध थया...चतुर्गतिनो अंत लावी पंचम गतिने प्राप्त थया....अने तेमनो वारसो श्री
गौतम प्रभुए संभाळ्‌यो अर्थात् ते ज वखते श्री गौतम प्रभु केवळज्ञानने प्राप्त थया–तेमने अरिहंतपद प्रगट थयुं....आ रीते
ते दिवसे श्री सिद्धदशा अने अरिहंतदशा ए बे सर्वोत्कृष्ट पवित्र दशाओनो कल्याणिक महोत्सव छे.
भव्यात्माओ सिद्धस्वभावनी अत्यंत उत्कंठा अने माहात्म्य वडे, ‘अहो! महावीर प्रभु मुक्त स्वरूपने पाम्या’ एम
मोक्षदशाना महोत्सवने उजवे छे.
जगतना पामर जीवोनां मृत्यु पाछळ शोक थाय छे....पण भगवाननी पाछळ मुक्तिनां महोत्सव उजवाय
छे....कारणके...ते मरण नथी पण साचुं आत्मजीवन छे. सादि–अनंतकाळ सहजानंद स्वरूपमां बिराजी रहेवानुं शुद्ध आत्मजीवन
छे....माटे रत्नदीपको वडे इन्द्रो पण तेना महोत्सव उजवे छे.....ए महोत्सव लोकोत्तर होय छे....
....ए निर्वाण कल्याणक महोत्सव मात्र बाह्य धामधूमथी पूर्णता पामतो नथी, परंतु जेवो सिद्ध भगवाननो आत्मा छे
तेवो ज आत्मा हुं छुं–एम पोताना स्वभावमां सिद्धपणुं स्थापीने, सिद्धपणानो अंश प्रगट करवो ते ज मंगळ–महोत्सव छे. श्री
वीरप्रभु पोते सिद्ध थया ए तो सर्वोत्कृष्ट मंगळ छे...अने....जे भव्यात्माओए आत्मामां शुद्ध सम्यग्दर्शनादि प्रकाश प्रगटावीने
सिद्धदशा सन्मुख पुनित पगलां मांडया छे तेओ पण धन्य छे.....
*
नूतनवर्षे मंगळ भावना
(१) आ अंकथी आत्मधर्म (गुजराती) मासिक त्रण वर्ष पूरा करी चोथा वर्षमां प्रवेशे छे. पूरां थतां वर्ष दरमियान
मारा तरफथी के आत्मधर्म कार्यालय तरफथी कोईपण ग्राहकने कोईपण प्रकारे असंतोष थयो होय तो ते दरगुजर करवानी
विनंती करुं छुं.
(र) आज सुधीमां आत्मधर्मना प्रकाशन कार्यमां मारी–अल्प मति–शक्तिने कारणे सत्देव–गुरु–शास्त्रनो कंईपण
अविनय–अनादर थयो होय तो अत्यंत विनम्रभावे जिनेंद्रदेव पासे अंतःकरणपूर्वक क्षमा याचुं छुं.
(३) जेओश्रीनी अपार अकषायी करुणा वडे मुज सरिखा अनेक पामर जीवोने आ दुषम काळे सत् श्रुतना अमृत
पीवां मळ्‌यां छे ते सद्गुरुदेवश्री कहान प्रभुने अत्यंत–अत्यंत भक्तिभावे कोटिकोटि वंदन करुं छुं –नमस्कार करुं छुं.
(४) परम पूज्य सद्गुरुदेवश्रीनी अत्यंत कृपा वडे जेना सुभाग्य खील्यां छे एवा मने आत्मधर्म (गुजराती)
मासिकनुं चोथा वर्षनुं एटले अंक ३७ थी ४८ सुधीनुं प्रकाशन करवानुं कार्य सोंपायुं छे जे अति उल्लास अने आनंदथी संपूर्ण
काळजीपूर्वक, सुंदर, सरस अने समृद्ध रीते चलाववानुं सामर्थ्य अने सौ मुमुक्षुओनो सहकार प्राप्त थाओ एवी आशा राखुं छुं.
(प) भगवानश्री सीमंधर प्रभुना श्रीमुखेथी साक्षात् श्रवण करीने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे रचेलां परमागमोना रहस्यनी
अमृतवर्षा परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री वरसावी रह्यां छे, ते अमृतधाराने झीलीने आत्मधर्म मासिक प्रगट थाय छे. ए
आत्मधर्म मासिक प्रत्येक भवी जनोनुं मार्गदर्शक बनो एवी भावना भावुं छुं.
–रवाणी