Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७३ः ३ः
।।
ॐ।।
श्री समयसारजी मोक्षअधिकारना –व्याख्यान– उपरथी
अध्यात्म उपदेश
प्रश्नः– अध्यात्मना उपदेशमां आत्मानुं स्वरूप समजवानी ज वात वारंवार आवे छे, परंतु कषाय मंद करवानी,
वैराग्यनी के भक्तिनी वात केम नथी करता? सम्यग्दर्शन करवानी वात भार दईने करो छो अने व्रतादिनी वात आवे त्यां
‘व्रतथी धर्म नथी’ एम कहीने तेनुं जोर ढीलुं करी नाखो छो, तो पछी आमां सिद्धांत बोध के उपदेश बोध शुं आव्यो?
उत्तरः भाई, जेओ आत्मानुं स्वरूप समजवा रोकाणा छे तेमने कषायनी मंदता, साचा देव–गुरु–शास्त्रनुं बहुमान,
कुदेवादिने न मानवा, ब्रह्मचर्यनो रंग, अने स्वाध्याय वगेरेनो शुभभाव ए शुं नथी आवतुं? जगतनी पंचातनुं पाप पाप
छोडीने आ एकला आत्मानी वात सांभळे छे अने ते समजवा रोकाय छे तेमां जिज्ञासा केटली छे? कषायनी मंदता केटली छे? शुं
आ बधो व्यवहार न आव्यो? आत्मानुं स्वरूप समजवानी रुचि थई अने तेमां रोकाणा तेटले अंशे शुं संसार प्रत्येनो वैराग्य न
आव्यो? सत् समजवाना जिज्ञासुने सत्नुं अने सत्ना निमित्त तरीके देव–गुरु–शास्त्रनुं अपार बहुमान होय छे. आ रीते
शुभराग, भक्ति, कषायनी मंदता, वैराग्य इत्यादिरूप व्यवहार आवे छे खरो परंतु आत्मानुं शुद्ध स्वरूप समजाववानी मुख्यतामां
ते व्यवहारने गौण करवामां आवे छे. जो जिज्ञासाथी आ मार्गने बराबर समजे तो सत्यनो मार्ग तो सीधो सट सम्यग्दर्शनपूर्वक
केवळज्ञान अने मोक्षनो ज छे. आ भाषा ज्ञाननी वातो नथी पण स्वभावनो मार्ग छे. यथार्थ सत् तरफनी जिज्ञासा अने सत्मां
अर्पणता ते ज सत स्वरूपने पामवानो स्वतंत्र उपाय छे; आमां पराधीनता नथी तेमज बुद्धिने गीरवी मूकवा जेवी वात नथी.
आग्रह छोडीने आत्मानी दरकारथी पोते समजवा मागे तो पोते ज सत् स्वरूप छे तेमां अभेद थाय छे.
जो शुभरागमां हरख अने होंश करशे तो ते शुभरागमां ज अटकी जशे पण स्वभावनी रुचि करीने तेमां ढळी शकशे
नहि, एटले के मिथ्यात्व टळशे नहि. जेनाथी मिथ्यात्व न टळे अने संसारनो अंत न आवे ते उपाय शुं कामनो?
शुद्धात्मस्वभावने निश्चय वडे जाणवाथी ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे अने सम्यग्दर्शनथी ज अनंत संसारनो अंत आवे छे.
निश्चयने जाण्या वगर व्यवहारने पण यथार्थपणे ओळखी शकाशे नहि. आखा संसारनी धमालने छोडीने आखो दिवस
एकला असंग तत्त्वनो अभ्यास करवो तेमां शुं कषायनी मंदता नहि आवती होय? आ श्रवण करे छे तेमां श्रवणनो भाव ते
व्यवहार नथी तो शुं निश्चय छे? सत्यनुं श्रवण करवुं तेम ज प्रतिपादन करवुं ते शुभरागरूप व्यवहार छे; लौकिक शुभराग करतां
सत् प्रत्येनो आ राग जुदा प्रकारनो छे, ते लोकोत्तर पुण्यनुं कारण छे. साधकने शुभराग होय छे तेनो निषेध करवामां आवतो
नथी परंतु ते रागने मुक्तिना कारण तरीके मानवानो निषेध ज्ञानीओ करे छे. राग मारी आत्मशांतिने मददगार नथी, एम
रागरहित स्वभावनी रुचि अने प्रतीतमां बराबर द्रढता करवी ते ज मुक्तिनो मार्ग छे.
ज्ञानीने सत् स्वभावना लक्षे जेवो ऊंचा प्रकारनो शुभराग थशे तेवो राग अज्ञानीने नहि थाय. छतां ज्ञानी ते रागने
आदरणीय मानता नथी अने अज्ञानी रागने आदरणीय माने छे. हे भाई! शुभराग होवा छतां तुं तारा आत्मा माटे एम मान
के, हुं शुद्ध चैतन्य ज्ञाता शांतिस्वरूप छुं, आ राग छे ते मारामां रहेवा माटे नहि, ते विकार छे, मारुं स्वरूप नथी. आम समजीने ते
रागनो आदर छोड अने आत्मानी रुचिने द्रढ करीने अभेद स्वभाव तरफ ढळ. आम करवाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट
थईने मोक्ष थशे अने बंधभाव छूटी जशे.
अहो! अज्ञानीने चैतन्यना वीतरागी स्वभावनुं अने वीतरागी सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य नथी आवतुं, पण
पंचमहाव्रतादिना रागनुं माहात्म्य आवे छे! वीतराग स्वभावनी रुचि तथा भरोसा वगर पंचमहाव्रतनो राग कर्यो तेमां
आत्माने शुं फळ? प्रथम तो, पंचमहाव्रतनो राग कर्यो तेमां आत्माने शुं फळ? प्रथम तो, पंचमहाव्रतना रागथी आत्माने लाभ
मानवो ते ज मिथ्यात्व छे अने ते महापाप छे. हवे विचारो के–पंचमहाव्रत पाळनार अज्ञानी आत्माने शरूआतमां, मध्यमां अने
अंतमां शुं फळ आव्युं? शुभराग छे ते पोते आकूळता छे, तेनुं अभिमान करीने मिथ्यात्वने द्रढ करे छे, अने ते शुभरागना
फळरूपे पण जडनो संयोग आवे छे. क्यारेय पण ते राग वडे आत्माने लाभ थतो नथी. छतां प्रथम भूमिकामां देव–गुरु–
शास्त्रनी ओळखाण पूर्वक तेमनुं बहुमान–भक्ति, ज्ञानीओनो समागम, वैराग्य इत्यादिनो शुभराग आवे छे. संसारनी तीव्र
रुचि होय अने ज्ञानीओनुं बहुमान तथा भक्ति न आवे ते तो जिज्ञासु पण नथी. अहीं तो जे जिज्ञासु थयो तेने पण शुभराग
सम्यग्ज्ञाननुं कारण नथी–एम समजाव्युं छे.