Atmadharma magazine - Ank 037
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४७३ः पः
अस्ति जाणतां हुं रागी–द्वेषी नथी एम नास्तिनुं ज्ञान आवी ज जाय छे. हुं तो शुद्धचैतन्य ज्ञाताद्रष्टा छुं, राग मारा स्वभावमां
नथी तेथी ते जीव नथी पण अजीव छे–आवी भेदज्ञाननी प्रतीत जेने पोताना आत्मामां बेसे ते जीव भेदज्ञान वडे शुद्ध
आत्मानुं ग्रहण करे अने रागनो त्याग करे. एटले के शुद्ध परमार्थ आत्मस्वभावने ज आदरणीय माने छे अने व्यवहारने
जाणे छे पण आदरणीय मानता नथी. शुद्ध चैतन्य सिवायना बीजा बधा भावोने ते स्वभावथी पर जाणीने हेय समजे छे.
×
“धर्ममां तो अंतर परिणामनी धारा जोवानी सूक्ष्म वात छे, शुभभाव उपर बिलकुल वजन नथी. कोई कहे ‘अमारा
शुभभावने उडाडे छे’ पण भाई रे! अहीं तत्त्व समजवामां, तेना विचारमां जे शुभभाव सहेजे आवे छे तेवा ऊंचा शुभभाव
क्रियाकांडमां नथी. अरे! एक कलाक ध्यान राखी तत्त्वने सांभळे तोपण शुभभावनी टंकशाळ पडे अने शुभभावनी सामायिक
थई जाय. तो पछी चैतन्यनी जागृति लावी निर्णय करे तो तेनी तो वात ज शी? तत्त्वज्ञाननो विरोध न करे अने ज्ञानीने शुं
कहेवुं छे ते सांभळे तो तेमां शुभरागनुं जे पुण्य बंधाय तेना करतां परमार्थना लक्ष सहित सांभळनारने उत्कृष्ट पुण्यना
शुभभाव थई जाय छे. तत्त्व सांभळवामां शुभभाव राखे तोपण आवुं शुभ सांभळवाना जोग फरी मळे, पण ते पुण्यनी
किंमत शी? पुण्यथी मात्र सांभळवानुं मळे पण तेमां जातने भेळवीने सत्यनो निर्णय न करे तो थोथां छे. पुण्यथी धर्म थाय
एम माने, अंतरगुणमां तेनी मदद माने तेनो तो निषेध होय ज. पुण्य–बंधन विकार छे, तेने धर्म माने तेनो त्रणे काळना
ज्ञानीओ निषेध करे छे. पुण्य विकार छे तेनाथी अविकारी आत्मधर्म थतो नथी माटे पुण्यनो निषेध कह्यो छे, पण तेथी पुण्य
छोडीने पापमां जवानुं कह्युं नथी; अशुभथी बचवा पूरतो शुभभाव ज्ञानीने पण होय छे पण तेनाथी धर्म थशे एम मानीने
कोई शुभभाव करे, तो तेनाथी कोई काळे अविकारी आत्माने कांई गुण थाय नहि.
कदी आवुं सांभळवानी धगश करी नथी, लौकिकमां तो पुण्य–पाप करवानी वातो सांभळवानुं मळे अने अहीं मांडमांड
धर्म सांभळवा आवे त्यां आवुं झीणुं आवे, एटले ‘आपणने नहि समजाय’ एम आगळथी ज बंध वाळी दे छे. लौकिक
कळामां तो जराय अजाण्यो रहेतो नथी.”–(समयसार–प्रवचनो भाग–१ पा. र६०–र६१)
बे मित्रो वच्चे तत्त्वचर्चा
सुरेशचंद्रः– एक जीव धर्मी छे, तेने कोई माल विनानो अने निर्माल्य कहे छतां तेने शंका न थाय, ते शा
कारणे?
दीनेशचंद्रः– केमके ते धर्मात्मा जीवने एवुं अंतरभान वर्ते छे के, हुं आत्मा छुं अने सदाय अनंत गुणोना
समुदायथी भरपूर छुं. आम पोताना स्वभावनी किंमत होवाथी तेने शंका थती नथी.
सुरेशः– तमने शांत बेठेला जोईने कोई कहे के, तमे नवरा–आळसु छो, तो तमने दुःख थाय के नहि?–शा
माटे?
दीनेशः– दुःख न थाय, कारण के मारामां वस्तुत्व गुण छे तेथी हुं दरेक समये प्रयोजनभूत कार्य करी ज रह्यो
छुं. मारा ज्ञान, श्रद्धा, सुख, पुरुषार्थ वगेरे अनंत गुणोनी द्रढतानुं कार्य मारी द्रव्यत्वशक्तिथी दरेक समये परिणमी
रह्युं छे माटे हुं आळसु नथी. लोको बहारथी माप करे छे ते साचुं नथी. स्वरूपमां अणउत्साह ते ज आळस छे अने
स्वरूपमां उत्साह ते ज साचो प्रयत्न छे.
सुरेशः– कोई कहे के, आत्मामां पैसा वगेरे कांई नथी तेथी ते तद्न माल वगरनो छे, तो तेने मानो के
नहि?
दीनेशः– आत्मामां पैसा वगेरे कांई नथी ए खरुं परंतु आत्मा माल वगरनो नथी, केमके तेनामां श्रद्धा,
ज्ञान, सुख, आनंद, वीर्य, वगेरे अनंत गुणो छे; अनंत गुणोवाळा आत्माने माल वगरनो केम कही शकाय?
सुरेशः– आत्माना गुणो वधारवा होय तो वधारी शकाय के नहि?
दीनेशः– गुण न वधारी शकाय, केमके गुण तो त्रिकाळ छे, ते नवो थई शकतो नथी. परंतु गुणनी पर्यायनी
निर्मळता वधारी शकाय छे. अगुरुलघुत्वगुण होवाथी वस्तुमां जेटला गुण होय तेटला ज त्रिकाळ रहे छे, तेमां
वधारो घटाडो थतो नथी.
सुरेशः– जो गुण वधी न शके तो पछी जेनामां ओछा गुण होय तेना गुण पूरा शी रीते थाय?
दीनेशः– कोईमां गुण ओछा होय ज नहि. बधा आत्माओमां गुण तो पूरेपूरा ज सदा रहे छे. गुण ओछा
थई गया नथी परंतु गुणनी पर्याय अधूरी थई छे. ‘आ जीवने ओछा गुण छे’ एम कहेवाय छे, परंतु खरेखर त्यां
गुण ओछा नथी पण गुणनी पर्याय ओछी (अधूरी) थई छे–एम समजवुं. गुण तो पूरेपूरा छे. एने जीव
ओळखतो नथी तेथी पर्याय अधूरी छे. जो