अस्ति जाणतां हुं रागी–द्वेषी नथी एम नास्तिनुं ज्ञान आवी ज जाय छे. हुं तो शुद्धचैतन्य ज्ञाताद्रष्टा छुं, राग मारा स्वभावमां
नथी तेथी ते जीव नथी पण अजीव छे–आवी भेदज्ञाननी प्रतीत जेने पोताना आत्मामां बेसे ते जीव भेदज्ञान वडे शुद्ध
आत्मानुं ग्रहण करे अने रागनो त्याग करे. एटले के शुद्ध परमार्थ आत्मस्वभावने ज आदरणीय माने छे अने व्यवहारने
जाणे छे पण आदरणीय मानता नथी. शुद्ध चैतन्य सिवायना बीजा बधा भावोने ते स्वभावथी पर जाणीने हेय समजे छे.
क्रियाकांडमां नथी. अरे! एक कलाक ध्यान राखी तत्त्वने सांभळे तोपण शुभभावनी टंकशाळ पडे अने शुभभावनी सामायिक
थई जाय. तो पछी चैतन्यनी जागृति लावी निर्णय करे तो तेनी तो वात ज शी? तत्त्वज्ञाननो विरोध न करे अने ज्ञानीने शुं
कहेवुं छे ते सांभळे तो तेमां शुभरागनुं जे पुण्य बंधाय तेना करतां परमार्थना लक्ष सहित सांभळनारने उत्कृष्ट पुण्यना
शुभभाव थई जाय छे. तत्त्व सांभळवामां शुभभाव राखे तोपण आवुं शुभ सांभळवाना जोग फरी मळे, पण ते पुण्यनी
किंमत शी? पुण्यथी मात्र सांभळवानुं मळे पण तेमां जातने भेळवीने सत्यनो निर्णय न करे तो थोथां छे. पुण्यथी धर्म थाय
एम माने, अंतरगुणमां तेनी मदद माने तेनो तो निषेध होय ज. पुण्य–बंधन विकार छे, तेने धर्म माने तेनो त्रणे काळना
ज्ञानीओ निषेध करे छे. पुण्य विकार छे तेनाथी अविकारी आत्मधर्म थतो नथी माटे पुण्यनो निषेध कह्यो छे, पण तेथी पुण्य
छोडीने पापमां जवानुं कह्युं नथी; अशुभथी बचवा पूरतो शुभभाव ज्ञानीने पण होय छे पण तेनाथी धर्म थशे एम मानीने
कोई शुभभाव करे, तो तेनाथी कोई काळे अविकारी आत्माने कांई गुण थाय नहि.
कळामां तो जराय अजाण्यो रहेतो नथी.”–(समयसार–प्रवचनो भाग–१ पा. र६०–र६१)
रह्युं छे माटे हुं आळसु नथी. लोको बहारथी माप करे छे ते साचुं नथी. स्वरूपमां अणउत्साह ते ज आळस छे अने
दीनेशः– गुण न वधारी शकाय, केमके गुण तो त्रिकाळ छे, ते नवो थई शकतो नथी. परंतु गुणनी पर्यायनी
दीनेशः– कोईमां गुण ओछा होय ज नहि. बधा आत्माओमां गुण तो पूरेपूरा ज सदा रहे छे. गुण ओछा
गुण ओछा नथी पण गुणनी पर्याय ओछी (अधूरी) थई छे–एम समजवुं. गुण तो पूरेपूरा छे. एने जीव
ओळखतो नथी तेथी पर्याय अधूरी छे. जो