Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ३०ः आत्मधर्मः ३८
शरीर आत्माने मुक्ति करवामां मदद करे ए तारी वात तद्न खोटी छे.
वळी मनुष्य शरीर आ कांई पहेलवहेलुं नथी मळ्‌युं. आवां शरीरो तो अनंतवार मळ्‌यां छे–छतां जीव मुक्ति
केम न पाम्यो? पोते पोताना स्वाधीन आनंद स्वरूपने जाण्युं नहि तथा सर्वज्ञ भगवंत जेम कहे छे तेम समज्यो
नहि अने पराश्रयमां ज अटकी गयो तेथी ज मुक्ति थई नथी. केवळज्ञान अने मुक्ति ते आत्माना स्वाश्रय भावथी
उपजेली अवस्था छे, शरीरना कोई हाडकामांथी के इन्द्रियोमांथी ते उपजता नथी.
ज्ञानी अने अज्ञानीने मूळ द्रष्टिमां ज फेर छे. अज्ञानीनी द्रष्टि पोताना आत्मस्वभाव उपर नथी एटले ते
स्वाधीनशक्तिने (उपादानने) जाणतो नथी तेथी ते पराश्रित द्रष्टिने लीधे संयोगमां बधे निमित्तने ज भाळे छे अने
तेनी ज शक्ति ते माने छे. ज्ञानीनी द्रष्टि पोताना आत्मस्वभाव उपर छे, तेने उपादाननी स्वाधीन–शक्तिनी खबर
छे, तेथी ते जाणे छे के ज्यां पोतानुं स्वभाव साधन होय त्यां निमित्त अनुकूळ होय ज; परंतु निमित्त उपर ज्ञानीनी
द्रष्टि नथी, जोर नथी. जो मनुष्यदेह धर्मनुं कारण होत तो मनुष्यदेह तो अनंतवार मळ्‌यो त्यारे जीव धर्म पामी गयो
होत! परंतु धर्म तो जीव पूर्वे पाम्यो नथी केमके जो पूर्वे धर्म पाम्यो होय तो अत्यारे आवो संसार न होय. माटे
मनुष्य शरीर जीवने धर्म पामवामां किंचित्त पण मददगार नथी.
प्रश्नः– आपणे तो धर्म करवो छे तेमां आटलुं बधुं समजवानुं शुं काम छे? आ समजीने शुं करवुं?
उत्तरः– भाई! स्व कोण ने पर कोण तेना निर्णय वगर धर्म क्यां करीश? उपादान अने निमित्त बन्ने
स्वतंत्र भिन्न भिन्न वस्तुओ छे एम समजीने, परवस्तु आत्माने लाभनुकशाननुं कारण छे एवी मिथ्यामान्यता
काढी नाखवी जोईए. आत्मा ज पोते पोताने लाभ नुकशान करे छे–एवी स्वाधीन द्रष्टि थतां असंयोगी
आत्मस्वभावनी साची ओळखाण थाय छे ते ज धर्म छे अने ते ज आत्मकल्याण छे. आ वात समज्या वगर जीव
गमे तेम करे तोपण तेनुं कल्याण थाय नहि.–१७
हवे, ‘निमित्तना अभावे जीवनो मोक्ष अटकयों छे’ एवी दलील निमित्त करे छेः–
उपादान सब जीव पै, रोकन हारो कौन;
जाते कयों नहि मुक्तिमें, बिन निमित्त के होन. १८.
अर्थः– निमित्त कहे छे–उपादान तो बधा जीवोने छे तो पछी तेने रोकानारो कोण छे? मुक्तिमां केम जता
नथी? निमित्त नथी मळतुं तेथी तेम थाय छे.
निमित्त कहे छे–“हे उपादान! जो उपादाननी शक्तिथी ज बधां काम थाय छे तो उपादान तो बधा ज
जीवोमां छे, बधा जीवोमां सिद्धशक्ति पडी छे तो ते बधा जीवो केम मुक्तिमां नथी जता? मुक्तिमां जतां कोण तेने
रोके छे? जीवोने सारूं निमित्त नथी मळतुं तेथी तेओ मुक्तिमां जता नथी. मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, उत्तमकूळ, पांच
इन्द्रियोनी पूर्णता, सारूं क्षेत्र, निरोगी शरीर अने साक्षात् भगवाननी हाजरी ए बधाय निमित्तो सारां मळे तो
जीवने धर्म थाय. आंखोथी भगवाननां दर्शन अने शास्त्रनुं वांचन थई शके छे माटे आंख धर्ममां मददगार थईने?
अने कान छे तो उपदेश संभळाय छे ने! जो कान न होय तो शुं उपदेश संभळाय? माटे पण मददगार थया. आ
रीते इन्द्रिय वगेरेनी सामग्री सारी होय तो जीवनी मुक्ति थाय. एकेन्द्रि जीवने पण उपादान तो छे तो पछी ते केम
मुक्ति जता नथी? तेने इन्द्रिय वगेरे सामग्री सारी नथी माटे ते मुक्ति पामी शकता नथी, तेथी निमित्तनुं ज जोर
छे...”–१८–
जुओ! निमित्तनी दलील! ! ! एकली संयोग तरफनी ज वात लीधी छे, क्यांय पण आत्मानुं तो कार्य लीधुं
ज नथी. परंतु हवे उपादान तेनो जवाब वाळतां एकला आत्मा तरफथी वात लेशे. बधुंय भले हो पण जो आत्मा
पोते न जागे तो तेनी मुक्ति थती नथी–ए मतलबे उपादान हवे उत्तर आपे छेः–
उपादान सु अनादिको उलट रह्यो जगमाहिं;
सुलटतही सुधे चले, सिद्ध लोकको जाहिं. १९.
अर्थः– उपादान कहे छे–जगतमां उपादान अनादिथी उलटुं थई रह्युं छे, सुलटुं थतां साचुं ज्ञान अने चारित्र
थाय छे अने तेथी ते सिद्धलोकमां जाय छे–मोक्ष पामे छे.
अरे निमित्त! उपादान तो बधा आत्मामां अनादिथी छे ए खरूं, परंतु ते उपादान पोताना ऊंधा भावे
संसारमां अटकयुं छे, कोई निमित्ते तेने रोकयुं नथी. निगोददशामां जीवधर्म पामी शकतो नथी त्यां