ः ३४ः आत्मधर्मः ३८
समयसार–प्रश्नोत्तर
–श्री समयसार पान प०२ना व्याख्यानना आधारे–
९. प्रश्नः– आत्मकल्याण करवा माटे सब अवसर आ चुका है–एम कह्युं, तेमां सब अवसर एटले शुं?
उत्तरः– आत्मामां सत् समजवा जेटला ज्ञाननी उघाड शक्ति छे अने सत्समागमनो योग मळ्यो छे– ए ज
सब अवसर छे. सत्नो जोग मळ्यो छे अने ज्ञानशक्ति पण मळी छे माटे शीघ्र आत्मकल्याणनो मार्ग समजी लेवो–
एवो तेनो भाव छे. कोई जीवो कर्मनो तेमज देश, काळ वगेरेनो वांक काढे छे अने आत्मस्वरूप समजवानो प्रयत्न
करता नथी, तेमने ज्ञानीओ कहे छे के भाई, तारा आत्मकल्याणमां तने कर्म, देश, काळ वगेरे कोई नडतां नथी, माटे
आ अवसर पामीने तारा ज्ञानमां सत् समजवानो प्रयत्न कर.
१०. प्रश्नः– आत्माना सुखना साधन कया कया नथी?
उत्तरः– अंतरंगमां मिथ्यादर्शन, अज्ञान ते सुखना साधन नथी, तेम ज पुण्यनो शुभराग, दया–भक्ति–
व्रत–तप आदिना शुभ विकल्पो ते पण आत्माना सुखनुं साधन नथी पण आकुळता होवाथी दुःख छे. वळी देव–
गुरु–शास्त्र पण आ आत्माथी जुदा छे तेथी तेओ पण आ आत्माना सुखनां साधन नथी. पैसा, शरीर, मकान,
भोजन वगेरे जड पदार्थो आत्माना सुखनुं साधन नथी. टूंकमां कहीए तो विकारभाव अने परवस्तुओ ते कोई पण
आत्माना सुखनुं साधन नथी.
११. प्रश्नः– तो पछी आत्मानुं सुखनुं साधन शुं छे?
उत्तरः– विकारथी अने परथी भिन्न एवो पोतानो स्वभावभाव ते ज आत्माना सुखनुं साधन छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज सुखनुं साधन छे, अने तेनुं पण मूळ कारण तो सम्यग्दर्शन ज छे. ज्ञानीओ
सम्यग्दर्शनने कल्याणमूर्ति कहे छे. त्रणे काळे आ जगतमां जीवनुं सर्वोत्कृष्ट हित करनार सम्यग्दर्शन ज छे. जेटले
अंशे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेटले अंशे ज सुख छे, अने तेनो अभाव ते ज दुःख छे. तेथी सुखी थवा माटे सर्व
प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए.
मिथ्याद्रष्टि जीव स्वर्गमां पण दुःखी ज छे, अने सम्यग्द्रष्टि जीव नरकमां पण सुखी छे.
१२. प्रश्नः– अंतर स्वभावने ओळखीने तेमां ठर–तने केवळज्ञान थशे–आ वात तमने रुचे छे?
उत्तरः– हा. तेमां अंतर स्वभावनी समजण अने स्थिरता ज करवानुं कह्युं छे; कोई बहारनी क्रिया के
शुभराग करवाथी केवळज्ञान थशे एम कह्युं नथी, केमके बहारनी क्रिया तो आत्मा करी ज शकतो नथी. अने
शुभराग वडे केवळज्ञान थतुं नथी केमके ते विकार छे. मुनिराज पण ज्यारे शुभरागना विकल्पने तोडीने स्वभावमां
ठरे छे त्यारे केवळज्ञान पामे छे. माटे पहेलां केवळज्ञानना साचा उपायनी प्रतीत करवी जोईए. जेने केवळज्ञानना
उपायनी प्रतीत अने रुचि न थाय अने शुभरागनी रुचि थाय तेने विकारनी रुचि छे पण आत्माना धर्मनी रुचि
नथी.
१३. प्रश्नः– ज्ञान साथे वणायेली शक्तिओना नाम कहो.
उत्तरः– ज्ञान साथे चारित्र, सुख, वीर्य, श्रद्धा, अस्तित्व वगेरे अनंत शक्तिओ वणायेली छे.
१४. प्रश्नः– ज्ञान मात्रनो स्वभाव सिद्धपणुं छे–एटले शुं?
उत्तरः– ज्ञानमात्र एटले एकलुं ज्ञान; एकला ज्ञानमां विकार के रागद्वेष न होय, दुःख न होय, परनो संग
न होय, ए रीते एकलुं ज्ञान पोते विकार रहित होवाने लीधे परिपूर्ण छे, ते ज सुख छे, ते ज्ञान ज्ञानमां ज स्थिर
रहेतुं होवाथी पोते ज चारित्र छे, आ रीते ज्ञान मात्रने ज सिद्धपणुं छे. जेम सिद्धने विकार वगेरे नथी तेम
ज्ञानमात्रमां पण विकार वगेरे नथी.
१प. प्रश्नः– ज्ञान मात्रमां स्थापेली द्रष्टि वडे खरेखर एक आत्मा ज देखाय छे–तेनो भावार्थ समजावो.
उत्तरः– ज्ञान मात्र ते ज मारूं स्वरूप छे, विकार वगेरे कांई मारूं स्वरूप नथी एवी द्रष्टि ते ‘ज्ञान मात्रमां
स्थापेली द्रष्टि’ छे जेणे पोताने ज्ञानमात्र स्वरूपे मान्यो ते परथी पोताने लाभ–नुकशान माने नहि, हुं परनुं करी
शकुं एम माने नहि, विकार थाय तेनो ‘ज्ञानमात्र’ मां स्वीकार करे नहि, एटले तेनुं लक्ष परथी अने विकारथी
खसी गयुं अने एकला ज्ञाता–द्रष्टा सुखमय स्वभावी पोताना आत्मा उपर तेनुं लक्ष थयुं. आवुं जेने आत्मभान
थाय तेणे पोतानी द्रष्टि ज्ञानमात्रमां