Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ३६ः आत्मधर्मः ३८
तेओ कोई विकारने पोतानुं स्वरूप मानता नथी तेथी त्रणेकाळना विकारनुं स्वामीत्व तेओए छोडी दीधुं छे.
बहारनी वस्तुना संयोग उपरथी परिग्रहनुं माप नथी. बहारमां त्यागी होवा छतां जेने अंतरमां मिथ्तात्व छे अने
पुण्यादिथी लाभ माने छे, परवस्तुनुं हुं करूं एम माने छे तेने त्रणेकाळना विकारनो अने परद्रव्यनो परिग्रह छे.
अने बहारमां छ खंडनुं राज्य अने छन्नुं हजार राणीओनो संयोग होवा छतां अंतरमां जेने आत्मभान वर्ते छे
अने पुण्य मारूं स्वरूप नथी, पुण्यथी मने लाभ नथी, परनुं हुं कांई करी शकतो नथी एवी प्रतीत छे तेणे
अभिप्रायमांथी त्रणेकाळना विकारनो अने परद्रव्योनो त्याग कर्यो छे. सौथी मोटो परिग्रह मिथ्यात्व छे ते
सम्यग्दर्शन वडे ज टळे छे. बहारमां समोसरणनो संयोग होवा छतां केवळी भगवान निष्परिग्रही छे. केमके तेमने
मोह नथी. अने मोह ते ज परिग्रह छे.
–भलामण–
आप आत्मधर्मनुं वांचन नियमित करता ज हशो ए विषे तो शंका नथी. परंतु एमां दर्शावाता न्यायो–
सिद्धांतो मात्र वांची जवाथी ज समजाशे नहि. ए दरेक न्यायनुं वारंवार चिंतवन–मनन करी तेनी यथार्थ समजण
अने ए समजणनी द्रढ प्रतीति–साची श्रद्धा करवी जोईए. आटलुं करशो तो आत्मधर्मनुं वांचन आपने खूब
आनंददायी–रसदायी लागशे.
अने संभव छे के एमां रजू थती घणी बाबतो न पण समजाय! तो तेनी नोंध करी लई, वखत मेळवी
सत्पुरुषना समागममां आवी दरेक बाबतनी छणावट करी यथार्थ निर्णय करवो जोईए.
जेणे अखंड सुख भोगववुं होय–संसार परिभ्रमण टाळवुं होय तेणे आटलो पुरुषार्थ तो करवो ज जोईए ने!
– रवाणी
अष्ट प्राभृत ः प्रवचनोनो टूंकसारः
(बीजी गाथा चालु) लेखांक–३ (गतांकथी चालु)
(प७) शंकाः– सम्यक्त्व परिणाम तो केवळी ज प्रत्यक्ष जाणे छे, छद्मस्थ तेने जाणी शके नहि, माटे
छद्मस्थजीवोए पोताने सम्यग्द्रष्टि मानवा न जोईए.
उत्तरः– ‘जीवोए पोताने सम्यग्द्रष्टि न मानवा’ एम सर्वथा एकांतपणे मानवुं ते तो मिथ्यात्व छे. छद्मस्थ
जीवो भले सम्यक्त्वने प्रत्यक्ष न जाणी शके परंतु ‘पोताने सम्यक्त्व छे’ एवो निर्णय तो पोते करी शके छे.
‘सम्यक्त्व न मानवुं’ एवो ऊंधो निर्णय तो तुं करी शक्यो के नहि? तो पछी ‘सम्यक्त्व छे’ एवो सवळो निर्णय
पण ज्ञानी पोताथी जरूर करी शके छे. पोताने सम्यक्त्व छे के नहि– ते बीजाने पूछवुं न पडे. सम्यक्त्वनो निर्णय
नथी थई शकतो एम सर्वथा एकांत मानवुं ते मिथ्यात्व छे. सम्यक्त्वना सूक्ष्म परिणामने केवळी भगवान सीधा
जाणे अने छद्मस्थने परोक्ष ज्ञानमां स्वसंवेदनवडे पोताने पोताना सम्यक्त्वनो निर्णय थाय छे–एम प्रत्यक्ष अने
परोक्ष बंने प्रमाणने मानवा जोईए. पण एकांत केवळी ज जाणी शके अने पोते कोई रीते न जाणी शके एम मानवुं
नहि. सम्यग्दर्शन थतां जीवने पोताने स्वभावनी निःशंकता थाय छे अने पोताना सम्यग्दर्शननो पोताने निःसंदेह
निर्णय थाय छे. आ श्रद्धानुं अर्थात् सम्यग्दर्शननुं साचुं स्वरूप ओळखावाय छे. सम्यग्द्रष्टिने पण पोताना
सम्यक्त्वनो निर्णय न थई शके एम जे माने छे तेओ सम्यग्दर्शनना स्वरूपने समज्या नथी.
चैतन्यस्वभावनी प्रतीति थतां सम्यग्दर्शन थाय छे, ते सूक्ष्म परिणाम नजरे न देखावा छतां तेना वेदननी
निःशंकता थाय छे. पूर्वे कदी नहि थयेलुं एवुं स्वसंवेदन थाय छे. भवरहित स्वरूपनी प्रतीत थई, रागरहित
स्वरूपनो अनुभव थयो अने पोताने तेनी खबर न पडे एम बने ज नहि. चैतन्य एवो आंधळो नथी के पोताने
पोताना स्वसंवेदननी खबर न पडे! अल्प काळे निःसंदेह मुक्ति छे एवी प्रतीत सम्यग्दर्शन थतां जीवने पोताने
थाय छे.
(प८) वळी जो कोई जीव पोताने सम्यग्द्रष्टि न माने अने बधा ज जीव पोताने मिथ्याद्रष्टि माने तो
वंद्यवंदकभाव वगेरे व्यवहारनो लोप थशे, सर्वे मुनि तथा श्रावकनी प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठरशे. जो दरेक जीव
पोतानी मिथ्याद्रष्टि ज माने तो पछी साधकपणुं क्यां रह्युं? माटे पोताने स्वानुभवनी प्रतीत वडे सम्यग्दर्शननो
निर्णय थया पछी शंका न करवी.
जेने सम्यग्दर्शन थयुं होय ते पण पोताने मिथ्याद्रष्टि माने अने मिथ्यात्वी अने पण पोताने मिथ्याद्रष्टि
माने तो पछी सम्यग्द्रष्टि तथा मिथ्याद्रष्टिनी प्रतीतमां फेर क्यां पडयो? तथा वंद्यवंदकभावरूप व्यवहार शी