रीते रहे? साचा देव–गुरु–शास्त्रनो निर्णय पण शी रीते थाय? वंद्यवंदकभाव भले परमार्थे आदरणीय नथी
परंतु साधक जीवे तेनो निर्णय तो करवो ज पडशे ने? जो सम्यक्त्वनो निर्णय न थाय तो कोण कुगुरु छे ने
कोण सुगुरु छे, कोण वंद्य छे ने कोण वंद्य नथी–एनो निर्णय शी रीते थाय? केवळी थाय ते ज पोताने
सम्यग्द्रष्टि माने अने बीजा बधा पोताने मिथ्याद्रष्टि माने तो पछी धर्मनी वात कोण करशे? पोताने
मिथ्याद्रष्टि पण माने अने वळी धर्मनी वात करे ए बंने केम बने? पोताने सम्यग्द्रष्टि मान्या वगर सत्यनी
निःशंक प्ररुपणा करी शके नहि.
तो ते ज्ञान आगळ शी रीते वधशे? गुरु सम्यग्द्रष्टि छे के नहि–एम जो जीव साचा गुरुनो निर्णय नहि करी
शके तो साचा निमित्तनी श्रद्धा पण नहि थाय अने साचा निमित्तने ओळख्या वगर व्यवहारतीर्थ शी रीते
रहेशे? जो पोताने मिथ्याद्रष्टि ज माने तो व्रतादि अंगीकार करवानुं क्यांथी बने? जेनी जे भूमिका होय ते
प्रमाणे जो तेनी प्रतीत नहि करे तो, आगळ वधेला कोण–ए जाण्या वगर कोनो विनय करवो ए नियम रहेशे
नहि. माटे सम्यक्त्व वडे आत्मानी प्रतीति थया पछी तेमां शंका न करवी. स्वानुभववडे सम्यक््श्रद्धा प्रगट
थतां तेनी निःशंक प्रतीत करवी. जेनुं वीर्य सामर्थ्य अनंत भवनी शंकामां झूली रह्युं होय अने सम्यग्दर्शननो
निर्णय करवामां पण कार्य न करतुं होय ते जीव निःशंक प्ररुपणा शी रीते करशे? ‘सम्यग्दर्शननो निर्णय न
थाय’ एनो अर्थ एवो थयो के सत्य तत्त्वनी निःशंक प्ररुपणा पण न थई शके. जेने जड चेतनना
भिन्नपणानी ज प्रतीत नथी तेने धर्मनी ज प्रतीत नथी. सम्यग्दर्शन ज बधा धर्मनुं मूळ छे. जेनाथी
अल्पकाळे मुक्ति थाय एवी प्रतीत थाय अने जेना आत्मामांथी कर्मो जऊं–जऊं थई रह्या होय, जेनी
परिणतिनुं परिणमन मुक्तस्वभाव प्रत्ये ढळी रह्युं होय तेने पोतानी दशानी प्रतीत न थाय एम बने ज
नहि. सम्यग्दर्शन थतां ज पोताना आत्मामां तेनी निःशंक प्रतीत अवश्य थाय छे.
सहित मुनिपणुं मनाव्युं ते पण अन्यमत छे. आ तो सत् स्वरूप छे, जिज्ञासुओए सत्ने मीठाशथी सांभळवुं
जोईए. सत्यनी प्ररुपणाथी जेने माठुं लागे तेने सत्यनी रुचि नथी. जे केवळीने आहार, स्त्रीने मुक्ति के
मुनिने वस्त्रादिकनो राग माने ते जैननामधारी पण मिथ्याद्रष्टि छे. अन्यमति एटले जैन सिवायना बीजा ते
तो अन्यमत छे ज, परंतु जैन संप्रदायमां पण जेओ पुण्यथी धर्म माने छे ते पण परमार्थे अन्यमति छे. परम
पवित्र सर्वज्ञ पदने विपरीतपणे मनावे ते जैनमतनी बहार छे. ३६३ पाखंड तो स्थूळ अन्यमत छे, जैनमां
देव–गुरु–शास्त्रना स्वरूपमां भूल करी ते पण स्थूळ अन्यमति (–गृहितमिथ्याद्रष्टि) छे अने साचा देव–
गुरु–शास्त्रने माननारा पण पुण्यादिथी धर्म माने के निमित्त उपादानना कार्यमां खरेखर मदद करे इत्यादि
माने तो ते पण अन्यमत समान छे, ए बधा मिथ्याद्रष्टि छे.
कमळमां नमी पडे छे एवा सर्वोत्कृष्ट पुण्यना धारक तीर्थंकरने रोग के दवा होय ज केम? छतां जे अरिहंतने
रोग के दवा मनावे तेओ अरिहंतना पुण्यने पण ओळखी शक्या नथी, तो पछी तेमनी पवित्रताने तो
ओळखे ज क्यांथी?
तेने चारित्र दशानी प्रतीत अने भावना थई.