Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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मागशरः २४७३ः ३९ः
होवा छतां ज्ञान लक्षण वडे श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) ने ओळखाववुं ते व्यवहार छे. आ रीते ज्ञान लक्षणने श्रद्धाना
बाह्य चिह्न तरीके वर्णव्युं.
(६८) आत्मा छे के नहि? जो आत्माना होवापणामां शंका होय तो प्रथम तेनो निर्णय कर, अने तेना
स्वरूपने बराबर ओळखीने तेनी यथार्थ प्रतीति कर. आत्मा जे स्वरूपे छे ते स्वरूपे तेने प्रतीतमां लेवो ते ज
सम्यग्दर्शन छे अने ते ज आत्मानी बधी निर्मळ–दशाओनुं मूळ छे.
(६९) सम्यग्दर्शन एवी चीज छे के जो जीव एक सेकंड मात्र ते प्रगटावे तो तेना भवनो नाश थाय.
सम्यग्दर्शन ए कोई वाडानी के कल्पनानी चीज नथी, पण ए तो स्वभावनी चीज छे. परिपूर्ण आत्मस्वभावनी
एक समय मात्र प्रतीत करतां अनंत जन्ममरणनो नाश थई जाय छे. अनंत संसारना अभावनुं मूळ कारण
सम्यग्दर्शन छे. आवुं सम्यग्दर्शन सनातन जैनदर्शन सिवाय क्यांय नथी. जैनदर्शनमां पण साचा देव–गुरु–शास्त्रने
मानवा मात्रथी आ सम्यग्दर्शन थतुं नथी. पण सर्वज्ञदेवे जेवो जाण्यो अने कह्यो तेवा पोताना परिपूर्ण स्वाधीन
निरपेक्ष स्वभावनी प्रतीतिनो सत्कार ते ज सम्यग्दर्शन छे. सत्स्वभावना स्वीकार विना मानव भव पूरो करीने
अनंत संसारमां रखडशे. मिथ्याद्रष्टि सदाय दुर्गतिमां ज पडयो छे. चारे गति दुर्गति ज छे, स्वर्गमां होय तोपण
मिथ्याद्रष्टि दुर्गतिमां ज पडयो छे. द्रव्यथी स्वतंत्र, गुणथी स्वतंत्र अने पर्यायथी पण स्वतंत्र एवा स्वभावनी
प्रतीति ते ज जैनधर्मनुं मूळ छे. स्वतंत्र कह्युं एटले परनी अपेक्षा वगरनुं, परनी अपेक्षा न ल्यो तो एकलुं द्रव्य
पोते पोताथी समस्तप्रकारे परिपूर्ण ज छे–एवा स्वभावनो श्रद्धामां स्वीकार करवो ते ज सम्यग्दर्शन धर्म छे.
(७०) आवुं सम्यग्दर्शन थतां अंतरंगमां अनंतानुबंधी कषायनो अभाव थाय छे ते प्रशम छे. प्रशम ते
सम्यग्दर्शननुं बाह्य चिह्न छे. ‘प्रशम’ ते चारित्रनी पर्याय छे, तेना वडे सम्यग्दर्शनने ओळखाववुं ते व्यवहार छे.
पहेलां ज्ञानगुणवडे सम्यग्दर्शनने ओळखाववानो व्यवहार कह्यो हतो, अहीं चारित्रगुणवडे ओळखाववानो व्यवहार
कहे छे.
(७१) प्रश्नः– प्रशम कोने कहे छे?
उत्तरः– सम्यग्दर्शन थतां अनंत संसारनुं कारण जे अनंतानुबंधी कषाय तेनो अभाव थाय छे, ते प्रशमनुं
अंतर लक्षण छे अने प्रशमनुं बाह्य चिह्न ए छे के, पवित्र जैनदर्शन सिवाय अन्य कोई पण मत के जे बधा
एकांतरूप मिथ्या छे तेनी मान्यता न करे, तेने सत्य न माने, तेनो आदर न करे. जे अन्य एकांत मतोने सत्य माने
छे के तेनी प्रशंसा करे छे तेने अनंतानुबंधी कषायनो सद्भाव छे, तेने प्रशम नथी; ते मिथ्याद्रष्टि छे.
यथार्थ जिनमतनी रुचि होय अने अन्य कोईपण मतने साचो न माने ते प्रशमनुं लक्षण छे. बाह्यवेशमां
धर्म मानवो, कोई लींगने धर्मनुं कारण मानवुं तथा तेनुं अभिमान करवुं ते अनंतानुबंधी कषाय छे, नग्न लींगने
पण धर्मनुं खरुं कारण माने तो ते पण अनंतानुबंधी कषाय छे; ते कषाय जेने न होय तेने प्रशम छे. आ प्रशम
उपरथी सम्यग्दर्शननो निर्णय थई शके छे, आ प्रशम ते चारित्रगुणनी पर्याय छे तेथी ते सम्यग्दर्शननुं बाह्य
चिह्न छे.
(७२) आत्मानुं यथार्थ स्वरूप जिज्ञासुओए प्रथम नक्की करवुं जोईए. आत्मा वस्तु छे के नहि? जो छे तो
तेनुं यथार्थ स्वरूप शुं छे? ‘छे’ तेनुं जेवुं स्वरूप छे तेवी प्रतीत ते ज सम्यग्दर्शन छे. परिपूर्ण स्वभावने जेम छे तेम
मानवो ते ज परिपूर्णदशा थवानुं मूळ छे.
(७३) सत् समजवानो यत्न करवो ते सत्नो मार्ग छे, समजवा माटे सत्समागम करे तेनाथी कांई
नुकशान नथी परंतु सत्समागम करतां ‘सत् निमित्तने लीधे मने लाभ थाय’ एम जो माने तो ते पण मिथ्यात्व छे.
स्वाधीन स्वभावना लक्षे सत्समागम करवो ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे.
(अष्टपाहुड पा. १२ वैशाख वद २)
(७४) सम्यग्दर्शनना निःशंक्ति अंगनी व्याख्या चाले छे. आत्मस्वभावनी प्रतीत वडे सम्यग्दर्शन थतां ते
ज समये केवळज्ञाननी प्रतीत थाय छे. सम्यग्दर्शन पूरा द्रव्यने स्वीकारे छे, पूरा द्रव्यना स्वीकारमां पूर्ण पर्यायनी
प्रतीत पण भेगी ज छे. बधी पर्यायोना पिंडरूप द्रव्यनी प्रतीत करतुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. जो सम्यग्दर्शन प्रगट
थतां ते ज वखते केवळज्ञाननी प्रतीत न थाय तो पछी क्यारे थाय? द्रव्यनी प्रतीतथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे अने
द्रव्यनी प्रतीत भेगी ज केवळज्ञाननी प्रतीत छे.
(७प) कोई एम कहे के, आत्माना पूरा स्वभावनी प्रतीत थई, पण केवळज्ञाननी प्रतीत नथी थई. तो
एम