होवा छतां ज्ञान लक्षण वडे श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) ने ओळखाववुं ते व्यवहार छे. आ रीते ज्ञान लक्षणने श्रद्धाना
बाह्य चिह्न तरीके वर्णव्युं.
सम्यग्दर्शन छे अने ते ज आत्मानी बधी निर्मळ–दशाओनुं मूळ छे.
एक समय मात्र प्रतीत करतां अनंत जन्ममरणनो नाश थई जाय छे. अनंत संसारना अभावनुं मूळ कारण
सम्यग्दर्शन छे. आवुं सम्यग्दर्शन सनातन जैनदर्शन सिवाय क्यांय नथी. जैनदर्शनमां पण साचा देव–गुरु–शास्त्रने
मानवा मात्रथी आ सम्यग्दर्शन थतुं नथी. पण सर्वज्ञदेवे जेवो जाण्यो अने कह्यो तेवा पोताना परिपूर्ण स्वाधीन
निरपेक्ष स्वभावनी प्रतीतिनो सत्कार ते ज सम्यग्दर्शन छे. सत्स्वभावना स्वीकार विना मानव भव पूरो करीने
अनंत संसारमां रखडशे. मिथ्याद्रष्टि सदाय दुर्गतिमां ज पडयो छे. चारे गति दुर्गति ज छे, स्वर्गमां होय तोपण
मिथ्याद्रष्टि दुर्गतिमां ज पडयो छे. द्रव्यथी स्वतंत्र, गुणथी स्वतंत्र अने पर्यायथी पण स्वतंत्र एवा स्वभावनी
प्रतीति ते ज जैनधर्मनुं मूळ छे. स्वतंत्र कह्युं एटले परनी अपेक्षा वगरनुं, परनी अपेक्षा न ल्यो तो एकलुं द्रव्य
पोते पोताथी समस्तप्रकारे परिपूर्ण ज छे–एवा स्वभावनो श्रद्धामां स्वीकार करवो ते ज सम्यग्दर्शन धर्म छे.
पहेलां ज्ञानगुणवडे सम्यग्दर्शनने ओळखाववानो व्यवहार कह्यो हतो, अहीं चारित्रगुणवडे ओळखाववानो व्यवहार
कहे छे.
उत्तरः– सम्यग्दर्शन थतां अनंत संसारनुं कारण जे अनंतानुबंधी कषाय तेनो अभाव थाय छे, ते प्रशमनुं
एकांतरूप मिथ्या छे तेनी मान्यता न करे, तेने सत्य न माने, तेनो आदर न करे. जे अन्य एकांत मतोने सत्य माने
छे के तेनी प्रशंसा करे छे तेने अनंतानुबंधी कषायनो सद्भाव छे, तेने प्रशम नथी; ते मिथ्याद्रष्टि छे.
पण धर्मनुं खरुं कारण माने तो ते पण अनंतानुबंधी कषाय छे; ते कषाय जेने न होय तेने प्रशम छे. आ प्रशम
उपरथी सम्यग्दर्शननो निर्णय थई शके छे, आ प्रशम ते चारित्रगुणनी पर्याय छे तेथी ते सम्यग्दर्शननुं बाह्य
चिह्न छे.
मानवो ते ज परिपूर्णदशा थवानुं मूळ छे.
स्वाधीन स्वभावना लक्षे सत्समागम करवो ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे.
प्रतीत पण भेगी ज छे. बधी पर्यायोना पिंडरूप द्रव्यनी प्रतीत करतुं सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. जो सम्यग्दर्शन प्रगट
थतां ते ज वखते केवळज्ञाननी प्रतीत न थाय तो पछी क्यारे थाय? द्रव्यनी प्रतीतथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे अने
द्रव्यनी प्रतीत भेगी ज केवळज्ञाननी प्रतीत छे.