अंतरंगमां जो शुभ परिणाम होय तो पुण्य छे, पण जो ते वखते घर वगेरे संबंधी अशुभ विचार करतो होय तो
पाप छे. पुण्य–पाप बन्ने विकार छे तेनाथी धर्म नथी–एवुं जो ते वखते आत्मभान वर्ततुं होय तो तेटले अंशे
अविकारी धर्मक्रिया छे, ते मोक्षनी उत्पत्ति करनारी क्रिया छे. पुण्य–पाप बन्ने बंधननी क्रिया छे ते संसारनी उत्पत्ति
करनारी क्रिया छे कोई जीवे अशुभ परिणाम तो छोडया अने जिनेन्द्रदेव, निर्ग्रंथ गुरु अने सत्शास्त्रना लक्षे
शुभराग कर्यो अने तेमां धर्म मान्यो तो ते जीव एकांत बंधननी क्रिया ज करी रह्यो छे, तेने अधर्मक्रिया ज वर्ते छे,–
पछी भले ते चालतो होय के स्थिर होय, त्यागी होय के गृहस्थ होय, खातो होय के उपवासी होय.
क्रिया अने अविकारी क्रिया तेना स्वरूपनुं जेने भान नथी ते धर्मनी क्रिया क्यांथी करशे?
अविकारी त्रिकाळ स्वभाव उपर द्रष्टि होय छे. विकारी क्रिया ते पण आत्मानी वर्तमान दशा छे. अने अविकारी
क्रिया ते पण आत्मानी वर्तमान दशा छे. आत्मानी जे वर्तमान दशा स्वभाव साथेनुं एकत्व चूकीने पर लक्षमां अने
पुण्य–पापमां अटके छे ते ज विकारी क्रिया छे, ते संसार छे, मोक्षनी घातक छे, सुखनी टाळनार छे अने दुःखनी
दातार छे. अने आत्मानी जे वर्तमानदशा पर लक्षथी खसीने स्वलक्षे पोताना त्रिकाळी स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–
स्थिरतामां टकी छे ते ज अविकारी क्रिया छे, ते धर्म छे, ते मोक्षनी उत्पादक छे अने संसारनी घातक छे, सुखनी
दातार छे अने दुःखनी टाळनार छे.
जडनुं करवानी वात तो बेमांथी एके क्रियामां नथी. जडनी क्रिया तो आ बन्नेथी जुदी स्वतंत्र छे, तेनाथी नथी
बंधन के नथी मुक्ति.
पुण्य–पाप थाय ते पण पर लक्षे थता होवाथी विकार छे, तेना लक्षे पण मोक्ष थाय नहि. एटले के जडनी क्रियाथी
अने विकारी क्रियाथी मोक्ष थाय नहि. जडनी क्रियानो बाह्य संयोग होवा छतां अने पर्यायमां क्षणिक राग–द्वेष होवा
छतां, ‘हुं आ जडथी भिन्न छुं अने मारा शुद्धज्ञानभावमां आ राग–द्वेष नथी एवुं भेदज्ञान वर्ते ते शरूआतनी
धर्मनी क्रिया छे, अने पछी शुद्ध ज्ञाता भावमां स्थिरता करतां रागद्वेष टळतां जाय छे. ए रीते धर्मनी क्रियाना जोरे
विकारनी क्रियानो नाश थाय छे.
तो तेने अशुभ परिणाम छे अने ते परिणामथी पाप बंधन छे. (३) ते वखते जो मंद कषाय राखे तो शुभपरिणाम
छे अने ते परिणामथी पुण्यबंधन छे. (४) ते वखते आहारनुं, शरीरनुं अने पुण्य–पापनुं लक्ष छोडीने पोताना
त्रिकाळी आत्मस्वभावनी ओळखाण पूर्वक तेमां स्थिर थयो–अनुभवमां एकाग्र थयो ते धर्म छे. आ चार प्रकारमां
नं. (१) जडनी क्रिया छे, नं. (२) तथा (३) ते विकारनी क्रिया छे अने नं. (४) धर्मनी क्रिया अथवा अविकारी
क्रिया छे.
क्यांथी काढशे? धर्मनी क्रिया शरीरमां थाय के आत्मामां? जेनी भूमिकामां धर्मनी क्रिया थाय छे एवा
आत्मस्वभावनुं जेने भान नथी ते धर्मनी क्रिया क्यां करशे? माटे सौथी पहेलां आत्माना स्वरूपनी समजण करवी
ते ज शरूआतनी धर्मनी क्रिया छे. ए सिवाय बीजी कोई क्रिया धर्मनी नथी. * * *