माटे कह्युं नथी.
वळगी बेठो तेथी ज अज्ञान रह्युं छे, माटे स्वभाव तरफ द्रष्टि कर अने निमित्ताधीन द्रष्टिने छोड.
गोठयुं छे तेथी भगवाननी वाणीमांथी पण ते पोताना, पुरुषार्थहीनपणाने ज पोषे छे. आत्मभान सहित ‘हुं मारा
संपूर्ण पुरुषार्थवडे मारा स्वभावधर्मनी पूर्णता करुं अने सवी जीव करुं शासनरसी’ एवी उत्कृष्ट शुभभावना वडे
बंधायेल तीर्थंकरनामकर्मनो उदय थतां सर्वज्ञदेवने रागरहित जे दिव्यध्वनि प्रगटे छे ते ध्वनिमां पण स्वभावनी
पूर्णतानुं ज निमित्तपणुं छे, भव्यजीवोने ते पुरुषार्थ प्रेरे छे अने उपदेशे छे के हे भव्य जीवो! तमारो स्वभाव
पुरुषार्थथी भरेलो छे, स्वभाव भानवडे पुरुषार्थनी संभाळ करो, अल्प काळमां तमारी मुक्ति ज छे. आ सत्य
पुरुषार्थवंत वीरोनो मार्ग छे. आ प्रमाणे जिनवाणी तो सत्य पुरुषार्थनी ज हाकल करे छे; जेम निमित्तरूप जे वाणी
छे ते पूर्ण पुरुषार्थनी भावनाना योगे प्रगटी छे तेम सांभळनाराओना उपादानने पण ते वाणी पूर्ण पुरुषार्थनी
भावनानुं ज निमित्त छे आ रीते उपादान–निमित्तनी संधि पूर्वक धोख जिनमार्ग प्रवर्ते छे.
छे? नीकाचित कर्मने पण क्षणमां उडाडी द्ये एवो पुरुषार्थ तारा स्वभावमां छे एम जणाववा नीकाचित कर्मनुं ज्ञान
कराव्युं. तुं पुरुषार्थ कर तो शुं कर्मो तने कांडु झालीने ना पाडे छे? पोताने सत्य पुरुषार्थ करवो नथी तेथी ज कर्मना
नामे पुरुषार्थहीनपणाने पोषण आपे छे. परंतु कर्मो अने तेना निमित्ते थता विकारभाव ए बधुं मारा शुद्धस्वरूपमां
नथी एम शुद्धस्वभावना भानवडे स्वभाव धर्मनी वृद्धि माटे ज भगवाननी वाणी छे. आत्माना सत्य
पुरुषार्थभावने कोईपण प्रकारे अंशमात्र पण पराधीन माने ते जीवोए आत्मस्वभावने स्वीकार्यो नथी, भगवाननी
वाणीने स्वीकारी नथी अने अप्रतिहत पुरुषार्थवंत तीर्थंकरोने स्वीकार्या नथी.
स्वभावनी अरुचिवाळो अने कर्मोनी रुचिवाळो छे, तेने पुरुषार्थना सत् निमित्तोनी–देव, गुरु, शास्त्रनी यथार्थ
श्रद्धा नथी; ज्ञानीओए ते कर्मद्रष्टिवाळाने साची समजणमांथी पण उथापी नाख्या छे, तो पछी तेने व्रत के त्याग तो
होय ज क्यांथी?
प्रत्ये पुरुषार्थवंत थाय छे ते जीव मुक्त थाय छे.
आवा भानमां ज्ञानीने पर्याये पर्याये पुरुषार्थनी वृद्धि ज छे; आ बधो महिमा भगवती प्रज्ञानो ज छे. भगवती
प्रज्ञा स्वतंत्र आत्मस्वभावने बतावनारी छे; कर्म हेरान करे एम जे माने छे तेओ भगवती प्रज्ञाथी रहित छे,
शास्त्रो तेने मिथ्याद्रष्टि कहे छे.