Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 21

background image
मागशरः २४७३ः २पः
सत्यपुरुषार्थ
– भगवती प्रज्ञा
राजकोट ता. २१–१२–४३. समयसार–मोक्ष अधिकारना व्याख्यानना आधारे.
‘कर्मना उदयथी जीव रागादि करे छे’ एम कहीने राग वखते निमित्त होय छे एम ज्ञान कराव्युं छे.
शास्त्रोए निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे तेनुं वर्णन कर्युं छे परंतु ते निमित्तोनुं आत्मा उपर जोर छे एम बताववा
माटे कह्युं नथी.
निमित्ताधीन थतो विकार आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी एम ओळखाण करावीने स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ
उपाडवा माटे, ‘जे विकार छे ते कर्मना निमित्तथी थाय छे’ एम तने कह्युं हतुं; त्यां स्वभावने न जोतां निमित्तने ज
वळगी बेठो तेथी ज अज्ञान रह्युं छे, माटे स्वभाव तरफ द्रष्टि कर अने निमित्ताधीन द्रष्टिने छोड.
भगवानना दिव्यध्वनिनो उपदेश चडता धर्मनी वृद्धि माटे ज छे. भगवानना आगमना एक पण शब्दमांथी
पाछा पडवानो आशय काढे तो ते जीव भगवानना उपदेशना एक शब्दने पण समज्यो नथी, तेने पुरुषार्थ–हीनपणुं
गोठयुं छे तेथी भगवाननी वाणीमांथी पण ते पोताना, पुरुषार्थहीनपणाने ज पोषे छे. आत्मभान सहित ‘हुं मारा
संपूर्ण पुरुषार्थवडे मारा स्वभावधर्मनी पूर्णता करुं अने सवी जीव करुं शासनरसी’ एवी उत्कृष्ट शुभभावना वडे
बंधायेल तीर्थंकरनामकर्मनो उदय थतां सर्वज्ञदेवने रागरहित जे दिव्यध्वनि प्रगटे छे ते ध्वनिमां पण स्वभावनी
पूर्णतानुं ज निमित्तपणुं छे, भव्यजीवोने ते पुरुषार्थ प्रेरे छे अने उपदेशे छे के हे भव्य जीवो! तमारो स्वभाव
पुरुषार्थथी भरेलो छे, स्वभाव भानवडे पुरुषार्थनी संभाळ करो, अल्प काळमां तमारी मुक्ति ज छे. आ सत्य
पुरुषार्थवंत वीरोनो मार्ग छे. आ प्रमाणे जिनवाणी तो सत्य पुरुषार्थनी ज हाकल करे छे; जेम निमित्तरूप जे वाणी
छे ते पूर्ण पुरुषार्थनी भावनाना योगे प्रगटी छे तेम सांभळनाराओना उपादानने पण ते वाणी पूर्ण पुरुषार्थनी
भावनानुं ज निमित्त छे आ रीते उपादान–निमित्तनी संधि पूर्वक धोख जिनमार्ग प्रवर्ते छे.
कोई जीव स्वभाव समजवानो सत्य पुरुषार्थ करे नहि अने एम कहे के, “शुं करीए! भगवाने नीकाचित्त
कर्म कह्युं छे, ते कर्म पासे जीवनो पुरुषार्थ चालतो नथी.”–अरे नमाला! शुं भगवाने तने पुरुषार्थ करवानी ना पाडी
छे? नीकाचित कर्मने पण क्षणमां उडाडी द्ये एवो पुरुषार्थ तारा स्वभावमां छे एम जणाववा नीकाचित कर्मनुं ज्ञान
कराव्युं. तुं पुरुषार्थ कर तो शुं कर्मो तने कांडु झालीने ना पाडे छे? पोताने सत्य पुरुषार्थ करवो नथी तेथी ज कर्मना
नामे पुरुषार्थहीनपणाने पोषण आपे छे. परंतु कर्मो अने तेना निमित्ते थता विकारभाव ए बधुं मारा शुद्धस्वरूपमां
नथी एम शुद्धस्वभावना भानवडे स्वभाव धर्मनी वृद्धि माटे ज भगवाननी वाणी छे. आत्माना सत्य
पुरुषार्थभावने कोईपण प्रकारे अंशमात्र पण पराधीन माने ते जीवोए आत्मस्वभावने स्वीकार्यो नथी, भगवाननी
वाणीने स्वीकारी नथी अने अप्रतिहत पुरुषार्थवंत तीर्थंकरोने स्वीकार्या नथी.
शुद्धात्मस्वभाव, विकार, विकारमां निमित्तरूप कर्म वगेरे बधुं जेम छे तेम भगवाननी वाणीमां उपदेश्युं छे.
ते सांभळीने शुद्धस्वभावनो पक्ष ग्रहण करवाने बदले जे जीव कर्मनी मुख्यता करी स्वभावने हीन माने छे ते जीव
स्वभावनी अरुचिवाळो अने कर्मोनी रुचिवाळो छे, तेने पुरुषार्थना सत् निमित्तोनी–देव, गुरु, शास्त्रनी यथार्थ
श्रद्धा नथी; ज्ञानीओए ते कर्मद्रष्टिवाळाने साची समजणमांथी पण उथापी नाख्या छे, तो पछी तेने व्रत के त्याग तो
होय ज क्यांथी?
सम्यग्ज्ञानमां तीखो पुरुषार्थ भरेलो छे तेथी समयसारजीमां वारंवार सम्यग्ज्ञानने ‘प्रज्ञाछीणी’ कहेल छे.
आत्माना स्वभावने अने बंधनना स्वरूपने जाणीने जे जीव बंध प्रत्ये विरक्त थाय छे एटले के आत्मस्वभाव
प्रत्ये पुरुषार्थवंत थाय छे ते जीव मुक्त थाय छे.
जीव अने बंध बन्नेने भिन्न करवानुं साधन एक भगवती प्रज्ञा ज छे. ते प्रज्ञारूपी छीणी वडे छेदतां
आत्मा अने बंध बन्ने जुदा पडी जाय छे.
तीक्ष्ण बुद्धिरूपी छीणीने निष्प्रमाद थईने पटकतां आत्मा अने बंध जुदा देखावा लागे छे. ज्ञानीओ
प्रज्ञाबुद्धिथी जाणे छे के कर्मो मारा स्वभावमां छे ज नहि तो पछी ते मने शुं करे? मारो पुरुषार्थ स्वतंत्र ज छे; –
आवा भानमां ज्ञानीने पर्याये पर्याये पुरुषार्थनी वृद्धि ज छे; आ बधो महिमा भगवती प्रज्ञानो ज छे. भगवती
प्रज्ञा स्वतंत्र आत्मस्वभावने बतावनारी छे; कर्म हेरान करे एम जे माने छे तेओ भगवती प्रज्ञाथी रहित छे,
शास्त्रो तेने मिथ्याद्रष्टि कहे छे.