Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २६ः आत्मधर्मः ३८
समयसारमां तो कोई पण प्रकारे यत्नपूर्वक प्रज्ञाछीणी पटकीने आत्माने अने बंधने जुदा करवानो पुरुषार्थ
ज दर्शाव्यो छे.
आमां तो एकला सम्यग्ज्ञान सहितना पुरुषार्थनी ज वात छे. प्रज्ञाबुद्धिवाळा जीवो कदी पण पुरुषार्थमां
शंका करता नथी. आ कथनथी, जेओ स्वभावसामर्थ्यने समजता नथी, समजवानो पुरुषार्थ करता नथी अने कर्मनो
दोष काढे छे एवा जीवोने साची समजणमांथी उथापी नाख्या छे, ते जीवो भगवानना दिव्यध्वनिना यथार्थ आशयने
समजनारा नथी, तेओ धर्मने माटे लायक नथी.
आचार्यप्रभु कहे छे के आवी स्वभावना पुरुषार्थनी वात सांभळीने जेने आत्मपुरुषार्थनो झणकार अंतरथी
न ऊठे अने कर्मनी ज वात करीने पुरुषार्थहीन रहे तेओ अमारा धोख–वीतरागना–मार्गमां नथी. जेने स्वभावनी
रुचि नथी, स्वभावनो पुरुषार्थ करवो नथी अने जेने संसारनी रुचि छे, कर्मनुं जोर माने छे एवा जीवोने कर्मनी
वातनो झट विश्वास आवी जाय छे; “कर्मनो तीव्र उदय आवशे तो पडी जवाशे” एम तेओ शंका कर्या करे छे केमके
स्वभावनी निःशंकता नथी, ज्ञानी तो एम निःशंक छे के कर्मनो गमे तेवो उदय मने पाडवा समर्थ नथी, कर्मनो तीव्र
उदय आवशे तो ते कर्ममां आवशे अने हुं तो आत्मामां तीव्र पुरुषार्थ करीने केवळज्ञान पामीश, मारा पुरुषार्थने कर्म
रोकी शकतुं नथी. ज्ञानीने स्वभावनी निःशंकता होवाथी पडवानी शंका नथी.
अहा! आचार्यदेवो अने परमागम शास्त्रो आवा परम पुरुषार्थनी प्रेरणा आपे छे तोपण जड कर्मो अने
निमित्तनी ओथ लईने जीवो पुरुषार्थहीन केम थता हशे!–एम ज्ञानीओने आश्चर्य थाय छे. जडकर्मना उदयनी वात
करे छे परंतु चेतनना सामर्थ्यनो भरोसो केम करता नथी? ‘कर्म उदयमां आवशे तो पडी जईश!’ एम जडना लक्षे
शंका करे छे, परंतु ‘अल्पकाळमां हुं पूर्ण पुरुषार्थ करीने वीतराग थई केवळज्ञान पामीश अने उदय सामुं पण नहि
जोउ अर्थात् उदयनो अभाव थशे’ एम पोताना स्वभावना लक्षे पोताना पुरुषार्थनी प्रतीत केम नथी करता?–तेनुं
कारण ए ज छे के ते जीवोने पोताना आत्मानी साची दरकार ज नथी. कर्मना स्पर्शरहित त्रिकाळ परिपूर्ण
मोक्षस्वभाव छे एवो पोताना स्वभावनो विश्वास करे ते जीवो ज धर्म पामवाने लायक छे. जेने पोताना
मोक्षस्वभावनो विश्वास नथी अने कर्मनो विश्वास छे ते जीवो बंधस्वभावना (संसारना) विश्वासवाळा छे, तेवा
जीवो वीतरागधर्म समजवाने लायक नथी. अहीं तो स्वभावना लक्षे विश्वास लावी जे सांभळवा आव्या तेवा
सांभळनारा जीवोने पण अल्पकाळमां मोक्ष लेनारा ज स्थाप्या छे, पोताना मोक्षस्वभावनो जेणे स्वीकार कर्यो तेने
मोक्ष थतां लांबो काळ लागे ज नहि. जेने आत्माना अपूर्व महिमानो स्वीकार नथी अने कर्मना ज्ञानमां संतोष
मानी बेठा छे एवा जीवोने मोक्षमार्गनी पात्रतावाळा गण्या नथी. आ तो तीर्थंकरोनो मार्ग छे, स्वभावने रीझववो
छे, जगतने रीझववुं नथी. स्वभाव मार्गमां फें फें न चाले, अरेरे मारूं शुं थशे! एवी वात स्वभावमार्गमां न चाले;
अंतरथी निःशंक श्रद्धा आववी जोईए के “हुं तो आत्मा छुं, आत्माने भव होय नहीं, भव ते आत्मानुं स्वरूप
नथी.” विचार पण भवरहितपणानो, स्वप्न पण सिद्धदशानुं!
चारित्र
‘पापरूप क्रियाओनी निवृत्तिने चारित्र कहे छे. घातिया कर्मोने पाप कहे छेः मिथ्यात्व, असंयम अने कषाय ए
पाप नी क्रियाओ छे, ते पाप क्रियाओना अभावने चारित्र कहे छे.’ (श्री धवलशास्त्र, पुस्तक ६ पा.४०)
विशेषः– ‘पापरूप क्रियाओ’ कहेतां तेमां शुभ अने अशुभ बंने भावो आवी जाय छे. शुभ अने अशुभ
बंने भावोथी घातिया कर्म बंधाय छे अने घातिया कर्मोने पाप कह्युं छे एटले के शुभ–अशुभ भावो ते ज पाप छे.
अहीं पाप क्रियाओमां मिथ्यात्वनुं स्थान सर्व प्रथम ज गणाव्युं छे केमके जगतना सर्व पापोमांसौथी मोटुं पाप
मिथ्यात्व ज छे. सौथी पहेलां ते पाप टाळ्‌या पछी ज असंयमादि टळे छे.
जे भावे आत्माना गुणनी शक्ति हणाय ते भाव पाप छे. शुभभावथी पण आत्मानो गुण हणाय छे तेथी
शुभभाव पण पापक्रिया ज छे. ते पापक्रियाना–एटले के शुभाशुभभावोना अभावने चारित्र कहेवाय छे. द्रष्टिना
भानपूर्वक जेटला अंशे शुभ–अशुभनो अभाव तेटलुं चारित्र छे.