Atmadharma magazine - Ank 038
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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मागशरः २४७३ः २७ः
प्रभु! तारी प्रभुतानी शुं वात करीए! शब्दे शब्दे–पर्याये पर्याये तारो ज महिमा छे; एक चैतन्यभाव ज
तने अनुकूळ छे, ए सिवाय आ जगतमां कोई पण भाव तने अनुकूळ नथी. तारो आत्मा ज चैतन्य– भगवान
प्रभु छे, तेने मानीने तेमां ज ठर! आत्मदर्शन ते ज जिनदर्शन छे. कह्युं छे के–
जिन सोहि आत्मा, अन्य सो हि कर्म;
ए वचनसें समज ले जिन प्रवचनका मर्म.
(श्रीमद् राजचंद्र)
जिनस्वरूप ए ज आत्मा छे, आ आत्मा पोते जिनस्वरूप ज छे, बीजुं बधुं (–रागादिभाव) कर्म स्वरूप
छे–जड छे. जे जीव चैतन्यस्वभावीभगवान आत्माना जोरने माने छे ते जैन छे अने जे कर्मना जोरने माने छे ते
जैन नथी पण अन्यमति छे; समयसारना आ पुरुषार्थमूलक सूत्रोवडे तेमनी मान्यतानुं निराकरण कर्युं छे.
जड कर्मअने विकारभाव ते बन्ने क्षणिक छे, ते बंधनने जाणवा मात्रथी बंधनथी छूटातुं नथी परंतु बंधनने
कापनारो बंधनरहित स्वभाव नित्य छे ते स्वभावने जाणवाथी बंधननो नाश थाय छे.
अहा, क्यां कर्मबंधनरहित चैतन्यभगवान आत्मानो स्वभाव! अने कयां चेतनपणारहित जड कर्मोनो
स्वभाव! बन्नेने जाणनारो तो चैतन्यभगवान छे, ते पोताना जाणनार स्वभाव सामर्थ्यनो विश्वास न करे अने
मात्र जड कर्मोने ज माने तो बंधननो छेद कोना जोरे करशे? जेने कर्मप्रकृतिनुं लक्ष छे अने उपादानना जोरनी प्रतीत
नथी तेणे स्वभावने स्वीकार्यो नथी. ज्यां अंदरना स्वभावने स्वीकार्यो त्यां निमित्ताधीनपणानो नकार थयो–
परावलंबन छूटयुं–एटले हवे एकला स्वभावना लक्षे भवनो अभाव ज छे. निमित्त कर्मोनुं लक्ष करवाथी मुक्ति
थती नथी परंतु सत्य पुरुषार्थ वडे उपादाननुं लक्ष, तेनी प्रतीत अने स्थिरता करवाथी ज मुक्ति थाय छे. माटे चेतन
आत्मामां जडकर्मनी हैयाति ज नथी एम समजीने आत्मस्वरूप प्रत्येनो स्वतंत्र–स्वाधीन सत्य पुरुषार्थ करवो.
घणा काळथी सांभळता होईये अने घणा माणसो कहेता होय
ते के जे खरेखर साचुं
साचुं शुं––––––––होय त
?
(श्रीसमयसारजी मोक्ष अधिकारना व्याख्यानोमांथी)
प्रश्नः– साचा ज्ञानथी ज धर्म थाय, पण शरीरनी क्रिया वगेरेथी धर्म थाय नहि एम ज्ञानीओ कहे छे; परंतु पुण्य
करतां करतां धर्म थाय अने शरीरनी क्रियाथी धर्म थाय–एम घणा काळथी अमे सांभळ्‌युं अने मान्युं छे, तो शुं घणा काळथी
सांभळ्‌युं अने मान्युं ते खोटुं?
उत्तरः– घणा काळथी सांभळ्‌युं के मान्युं माटे ते साचुं–एम नथी. काळना मापथी सत्य–असत्यनी परीक्षा थाय
नहि. अनंतकाळथी संसारभाव करतो आव्यो छो अने मोक्षभाव एक सेकंडमात्र कर्यो नथी, तेथी शुं अनंतकाळनो
संसारभाव छे माटे तेने साचो करवो छे? अनंतकाळनो संसारभाव टाळीने एक क्षणमां मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र भाव) प्रगट थई शके छे. त्यां कोई एम माने छे–“अमे तो अनंतकाळना संसारी छीए अने तमे तो हजी आ ज
क्षणे केवळी थाय छो माटे तमारा करतां घणा काळनो अमारो जुनो संसार सारो छे?” अरे भाई! केवळ पर्याय नवी छे
तेथी शुं? संसार तो बधा जीवने अनादिनो छे तेमां कांई अपूर्वता नथी, परंतु जे जीवो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट
करीने, संसार भाव टाळीने मुक्ति पाम्या, तेओए अपूर्व पवित्रता प्रगट करी छे. घणो काळ के ओछो काळ तेना आधारे
सारूं के खराब नथी, परंतु सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र भाव ते ज सारो छे अने मिथ्यात्वादि भाव ते ज खराब छे.
अनंतकाळ पहेलां, आजे के अनंतकाळ पछी दरेक जीवने सम्यग्दर्शनादि भावथी ज धर्म थाय छे, तेना वगर कोई जीवने
क्यारेय धर्म थतो नथी. एक जीव अनंतकाळ पहेलां सिद्धदशा पाम्या होय अने बीजा जीव हमणां ज सिद्धदशा पाम्या होय
तो ते बन्नेना भावनी पवित्रता समान होवाथी बन्नेने सरखुं ज सुख छे. परंतु–अनंतकाळ पहेलां जे सिद्ध थया तेमने
वधारे सुख अने पाछळथी सिद्ध थया तेमने ओछुं सुख–एम नथी.
आथी एम समजवुं के–‘शरीरनी क्रिया माराथी थाय, पुण्यथी धर्म थाय’ एवी मान्यता घणा काळनी होय तोपण
ते भाव ऊंधो छे, तेनाथी