Atmadharma magazine - Ank 039
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः प०ः आत्मधर्मः ३९
श्री सर्वज्ञाय नमः।। ।। श्री वीतरागाय नमः
श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद प सुधीना धार्मिक दिवसो दरमियान थयेला
श्री समयसारजी गाथा १३ तथा श्री पद्मनंदी पंचविंशतिका शास्त्रना ऋषभजिनस्तोत्र उपरनां
व्याख्यानो अने चर्चाओनो–टूंकसार–लेखांकः ३
(आ लेखना नं. ४प सुधीना फकरा अंक ३७मां आवी गया छे, त्यारपछी अहीं आपवामां आवे छे)
(४६) जिनभक्ति
जिनमार्गमां हंमेशा जिनेन्द्रदेवना दर्शन करवानो सनातन रिवाज छे. प्रथम देवदर्शन पछी गुरु वंदन अने
शास्त्रश्रवण–एवो मार्ग छे. ज्ञान मेळववा मागे, पण देव–गुरु–शास्त्रनो विनय करतां न आवडे तो ज्ञान थाय नहि.
प्रभुदर्शनना भाव करे नहि, ज्ञानी प्रत्ये बहुमान आवे नहि तेने ज्ञान परिणमे नहि. सम्यग्ज्ञानना धारक ज्ञानी गुरु,
तेमना गुरु आचार्यभगवंत अने तेमना पण परम गुरु श्रीसीमंधरादि जिनेन्द्र भगवंतो–तेमना प्रत्ये भक्तिनो विवेक
न ऊगे तो ज्ञान क्यांथी परिणमे? संसारमां स्त्री, पैसा वगेरे खातर जेटली अर्पणता अने होंश छे तथा तेना विरहनुं
जेटलुं वेदन थाय छे तेटली अर्पणता, होंश अने विरहनुं वेदन ज्ञानीओ प्रत्ये जेने नथी तेने ज्ञाननी साची झंखना ज
नथी. पूर्ण ज्ञानस्वरूप जे साक्षात् जिनप्रतिमा बिराजे छे तेमना प्रत्ये पण भक्ति, दर्शनादिनो उल्लास भाव आवतो
नथी अने मात्र ज्ञाननी वातो करे छे तेने ज्ञान प्रगटशे नहि. जिनभक्ति वगर ज्ञानने क्यां संघरशो? जिनभक्ति अने
ज्ञानीनी भक्ति वगर ज्ञान ठरशे नहि. ज्यां पहेलुं पगथियुं पण नथी त्यां सम्यग्ज्ञान वगेरे होय नहि. ज्ञानने माटे जे
अपर्णता, भक्ति अने आत्मझंखना जोईए ते नथी माटे ज ज्ञान अटकयुं छे.
(४७) स्वभावनी एकता
हुं एक शुद्ध सदा चैतन्यस्वरूप छुं, राग थाय तेनाथी जुदो चैतन्य ज्ञाता ज छुं–एवी श्रद्धापूर्वक स्वभावनी
एकता करवा माटे जिज्ञासु जीवोने प्रथम भूमिकामां, स्वभावने पामी चूकेला एवा सत्देव, गुरु, धर्म प्रत्ये भक्ति
उछळ्‌या वगर रहे नहि. छतां जे राग छे ते मोक्षमार्ग नथी पण स्वभावनी एकता ते ज मोक्षमार्ग छे. स्वभावमां
एकतानुं फळ मोक्ष अने विकारमां एकतानुं फळ संसार छे. अनादिकाळथी जे अवतार छे ते स्वभावने भूलीने
विकारमां एकताने लीधे ज थाय छे, पण विकार रहित आखो शुद्धस्वभाव छे तेनी एकता ते ज मोक्ष छे; प्रथम अंशे
एकता ते सम्यग्दर्शन छे अने पछी विशेष एकता थतां सम्यक््चारित्र प्रगटे छे अने पूर्ण एकता थतां केवळज्ञान थई
मोक्ष थाय छे.
(४८) पानुं फरे ने मोती झरे
स्वभावनी रुचिपूर्वक सत्देव–गुरु–शास्त्रनो प्रेम ऊछळी नीकळे छे त्यारे नवतत्त्वनी श्रद्धा होय छे अने त्यार
पछी रुचिना जोरे सम्यग्दर्शन प्रगटतां स्वभावनी एकता थाय छे. जेम वेपारी बोले छे के–चोपडानुं पानुं फरे ने मोती
झरे, तेम सम्यग्दर्शन वडे स्वभावनी एकता थतां पर्याय परिणमे ने पवित्रता प्रगटे.
(४९) जिन प्रवचनमाता हुलरावे छे...
जेम बाळकने पुष्ट करवा माटे माताना स्तननुं दूध पथ्य छे तेम अनंतकाळथी जन्म–मरणमां रखडतां आत्माने
सम्यग्ज्ञान वडे पुष्ट थवा माटे आ स्वभावनी वात माताना स्तननां दूध समान पथ्य छे. माताना स्तननुं दूध पीने जेम
बाळक पुष्ट थाय छे तेम स्वभावनी रुचि वडे तत्त्व–श्रवण करीने आत्मा पुष्ट थाय छे.
जगतमां बाळकने सुवडाववा माटे माता गाणां गाती गाती हूलरावे छे; पण अहीं तो श्री जिनप्रवचन माता
आत्मस्वभावने जागृत करवा माटे हूलरावे छे. भगवानना दिव्य वचनोरूपी जिनप्रवचन माता आत्माना सम्यग्ज्ञाननुं
पोषण करी करीने जन्म–मरणनां दुःखथी उद्धार करे छे. प्रवचनमाता ज आत्माना सम्यग्ज्ञानने पोषनारी छे.
प्रवचनमाता आत्मस्वभावने जागृत करवा माटे कई रीते हूलरावे छे? प्रवचनमाता कहे छे के–हे आत्मन! तुं सिद्ध छो,
तुं ज्ञानरूप छो, तारा चैतन्य पद पासे त्रण जगतननुं राज तुच्छ छे, तुं स्वाधीन छो; परिपूर्ण छो; तुं तारा स्वरूपना
महिमा वडे स्वभावमां एकता कर, रागमां अटकवाथी तारा चैतन्य स्वभावनी