Atmadharma magazine - Ank 039
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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पोषः२४७३ः प१ः
एकता थती नथी. तारो स्वभाव निरालंबी छे, ते स्वभावना अवलंबन वडे ज तारी शोभा छे, स्वभावना
अवलंबनथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटीने पूर्ण परमात्म दशा प्रगटे छे. तारो स्वभाव परथी नभतो नथी
अने परथी दुभातो नथी; चैतन्य तत्त्व परनी अपेक्षा राखतुं नथी.
(प०)...पण आत्मा जाण्यो नहि
आत्मा पोते स्वभावथी भगवान छे. दरेक आत्मा पोतानी शक्तिनुं भान करीने ते शक्तिना विकासद्वारा
पोते परमात्मा थई शके छे, आवी स्वतंत्रतानी जाहेरात जैनदर्शन सिवाय क्यांय नथी. जो पोते पोतानी शक्तिनी
ओळखाण न करी तो जीवनमां शुं कर्युं? आत्मानो ज्ञानस्वभाव परिपूर्ण जाणवानो छे परंतु अनादिथी पोते
पोताने भूलीने ज्ञाननो उपयोग पर तरफ करी रह्यो छे; पर वस्तुमां ज्ञाननुं डहापण बतावे छे परंतु पोताना
स्वसामर्थ्यना भान वगर अनंतकाळथी संसारमां रखडी रह्यो छे. कह्युं छे के–
परख्यां माणेक मोतियां, परख्यां हेम कपुर,
एक न परख्यो आत्मा त्यां रह्यो दिग्मूढ.
अनंतकाळथी संसारमां रखडतां ज्ञानना उघाडवडे हीरा अने माणेक वगेरे परखवामां चतुराई मेळवी,
परंतु चैतन्य हीरो एवो पोतानो आत्मा तेने कदी जाण्यो नथी. चैतन्यने ओळख्या वगर जे जाण्युं ते बधुं
जाणपणुं धूळमां गयुं छे, तेनाथी आत्माने लाभ थयो नथी. जो एकवार पण चैतन्यने जाणे तो तेना संसारनो
अंत आवी जाय. जेणे एक आत्मा जाण्यो तेणे जाणवायोग्य बधुं ज जाण्युं छे, जेणे एक आत्मा मेळव्यो तेणे
मेळववायोग्य बधुं ज मेळवी लीधुं. एटले आ जगतमां जाणवायोग्य होय तो एक आत्मा ज छे अने मेळववा
योग्य एक आत्मा ज छे.
(प१) बुद्धि वगरना बावा थईने...
आत्माने जाण्या वगर राग मंद पाडीने त्यागी थाय तोपण तेणे आत्माने खातर कांई ज कर्युं नथी. ए तो
‘बुद्धि वगरना बावा थईने भवसागरमां डूबी मूआ’ एना जेवुं कर्युं छे. आत्मानुं तो भान न करे अने राग
घटाडयो तेमां धर्म अथवा मुनिदशा मानी बेठो ते महा मिथ्यात्व पोषीने संसारमां डूबी गया छे. माटे प्रथम सत्य
समजवुं जोईए. सत्स्वभावना भान विना कोई रीते कल्याण नथी.
(प२) प्रथम मिथ्यात्वरूपी नागने बहार काढवो जोईए
आत्माना सम्यग्दर्शन वगर जे राग टाळवा मागे ते यथार्थपणे टाळी शके नहि. वर्तमान राग मंद पडयो
एम लागे, पण ज्यां सुधी विकारना मूळरूप मिथ्यात्वनो नाश न करे त्यां सुधी विकार टळे नहि. आ संबंधमां
द्रष्टांतः– कोईना घरमां मोटो फणीधर नाग नीकळ्‌यो होय अने पकडवा जतां क्यांक खूणे–खांचरे भराई बेठो होय.
लांबो साणसो वगेरे साधन लावतां वार लागे तेम होय त्यारे नाग उपर टाढुं पाणी छांटीने तेने ठारे छे. परंतु
पाणी छांटीने ठारवाथी नाग संबंधी भय टळ्‌यो कहेवाय नहि. अल्पकाळे पाणीनी असरमांथी छूटीने फुंफाडा करतो
बहार नीकळशे...ज्यां सुधी सर्पने ज पकडीने बहार काढवामां न आवे त्यां सुधी भय टळे नहि, तेम आत्मामां
मिथ्यात्वरूपी नाग छे, कषाय मंद करे तो तेणे कषायने ठार्यो छे, पण ज्यां सुधी मिथ्यात्वरूपी नाग विद्यमान छे त्यां
सुधी कषाय टळे तो नहि अने वास्तविकपणे मंद पण न थाय. मिथ्यात्वने लीधे कषायभावनी रुचि तो टळी नथी
तेथी वर्तमान मंद कषायने अल्पकाळमां टाळीने अति तीव्र कषाय व्यक्त करशे. अनंत कषायनुं मूळ मिथ्यात्व ज छे,
ते टाळ्‌या सिवाय वर्तमान कषाय मंद कर्यो देखाय के त्यागी देखाय परंतु तेथी आत्मकल्याण नथी.
(प३) सर्व पापनुं मूळियुं
वळी जेम झाडनुं मूळ कापी नाखवामां आवे तो तेनां डाळ–पान अल्पकाळे नष्ट थई जाय छे; अने डाळ–
पान कापे पण जो मूळ सलामत होय तो अल्प काळे पाछुं झाड पांगरी जाय छे. तेम जेणे संसारनुं मूळ जे मिथ्यात्व
तेने छेदी नाख्युं छे तेने अन्य कषाय पण अल्पकाळमां नष्ट थई जशे; अने जेणे कषायनी मंदता तो करी छे पण
सम्यग्दर्शन वडे मिथ्यात्वरूपी मूळने छेद्युं नथी तेने तो अल्पकाळे कषाय एवो ने एवो थशे. आजे भले जीव दया
पाळतो होय तेम देखाय, परंतु मिथ्यात्वना फळमां ते भविष्यमां कसाईखानां मांडशे. कहेवानो आशय ए छे के
मिथ्यात्व ए ज सर्व पापनुं मूळ छे, तेने सौथी पहेलां टाळवुं जोईए.
(प४) जिज्ञासुनो उल्लास
आत्मा त्रिकाळी तत्त्व छे; त्रिकाळी तत्त्वने परनी अपेक्षाथी लक्षमां ल्यो नव तत्त्वोना भेद पडे छे. नव