Atmadharma magazine - Ank 039
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः प२ः आत्मधर्मः ३९
तत्त्वना रागमिश्रित विचार साथे त्रिकाळी तत्त्वने क्षणिक संबंध छे, पण नित्य संबंध नथी; अने त्रिकाळी तत्त्वने
पर साथे तो कदी संबंध नथी. परनी अपेक्षा वगर अने क्षणिकरागना संबंधथी पण भिन्न एवा त्रिकाळी तत्त्वने
निरपेक्षपणे लक्षमां लेतां नव तत्त्वोना भेद पडता नथी, ए रीते त्रिकाळी तत्त्वनी प्रतीति ते ज सम्यग्दर्शन छे.
सम्यग्दर्शननो उपाय सांभळतां ज जिज्ञासुने उल्लास आवे छे. जेम गरीब मनुष्यने कोई अखूट निधान मळे तेवी
वात संभळावे तो ते केटली होंशथी सांभळे? तेम ज्ञानीओ आत्माना अपूर्व निधान बतावे छे के भाई रे! तारा
चैतन्य निधान तारामां ज छे, तारे कांई बहारथी मेळववुं पडे तेम नथी, तारी परिपूर्णतामां जरा पण ओछप थई
नथी; आम चैतन्य निधान बतावे छे अने ते मेळववानो उपाय पण बतावे छे. ते सांभळीने साचा जिज्ञासुने
अपार होंश उछळे! अने घणी रुचिथी सांभळे! पोताना आत्मस्वभावनी वात सांभळतां अने सम्यग्दर्शनादि
प्रगटवानो उपाय जाणतां जिज्ञासुने पोताना आत्मामां असंख्य प्रदेशे उल्लास आवे छे, चैतन्यनिधान–प्राप्तिनो
आनंद उल्लसे छे. जेने आत्मस्वभावनी प्राप्ति माटेनो आवो उल्लास आवे तेने, ते आत्मस्वभाव दर्शावनारा
देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये अपार भक्ति अने बहुमान आव्या वगर केम रही शके? (चालु...)
* * * * * * * *।। ।।
भैया भगवतीदासजी कृत लेखांक–त्रीजो
उपादान–निमित्त संवाद
(आ उपादान–निमित्तना संवादना ४७ दोहानुं व्याख्यान वीर संवत २४७१ना पर्युषण दरमियान
वंचाई गयेल छे तेमांथी १६ थी २१ दोहानुं व्याख्यान आत्मधर्म मासिकना गया अंकमां आवी गयेल छे.
अहीं त्यारपछी आगळना दोहाओनुं व्याख्यान आपवामां आवे छे.)
आ उपादान–निमित्तनो संवाद चाले छे, तेना २१ दोहा वंचाई गया छे. आत्माना गुण–दोष माटे पर
चीजनी मददनी जरूर छे, पर चीज आत्माने गुण–दोष उपजावे छे–आ मान्यता साची नथी एम आ संवादमां सिद्ध
कर्युं छे.
जो पर चीज आत्माने दोष उपजावे तो, पर चीज तो कायम छे तेथी, दोष कायम थई जाय अने कदी ते टळी
शके नहि; तथा जो गुण माटे आत्माने पर चीजनी जरूर पडे तो गुण पराधीन थई जाय, परंतु गुण तो स्वाधीन
स्वभाव छे, माटे आत्माना गुण–दोष परचीज उपजावी शकती नथी. ज्यारे जीव पोते पोतानुं कार्य करे त्यारे ते
निश्चय (–उपादान) छे अने बीजी चीजनी हाजरी ते व्यवहार (–निमित्त) छे; आ बंने छे खरा, परंतु बीजी चीज
तेने गुण–दोष उपजाववा समर्थ नथी.
पैसा होय तो पुण्य उपजे अने शरीर सारूं होय तो धर्म थाय ए बंने मान्यता तद्न मिथ्या छे, तेवी ज रीते
देव–गुरु–शास्त्रनी हाजरी जीवने धर्म पमाडे ए वात पण मिथ्या ज छे. जीव पोते समजे तो धर्म पामे, अने पोते
धर्म पामे त्यारे ‘श्रीसद्गुरुए धर्म समजाव्यो’ एम विनयथी बोलाय, ते व्यवहार छे, परंतु खरेखर कोई कोईने
धर्म समजाववा समर्थ नथी एवा निश्चयनुं जो भान होय तो व्यवहार साचो कहेवाय, नहितर तो व्यवहार पण
खोटो छे.
निमित्तनी दलील हती के हे उपादान! तारी ए बधी वात तो ठीक, परंतु तारा आत्मामां जे दोष थाय छे ते
दोष शुं तारा स्वभावमांथी आवे छे? नहि ज, दोष माटे बीजी चीजनी हाजरीनी जरूर छे, तेथी हुं कहुं छुं के
निमित्तना जोरथी ज दोष थाय छे. त्यारे उपादाने जवाबमां कह्युं के–अरे निमित्त! उपादान ज्यारे पोतानुं कार्य करे
त्यारे निमित्तनी हाजरी होय छे एम श्री सर्वज्ञभगवाने जोयुं छे–तो तेनी माराथी केम ना कहेवाय? परंतु हाजर
रहेली बीजी चीज आत्माने बिलकुल विकार करावती नथी.
“जो एकला उपादानथी ज कार्य थई शकतुं होय तो शुं कर्म वगर आत्मामां अवगुण थाय छे? कर्म वगर
अवगुण न थाय माटे कर्मनुं जोर ज आत्माने अवगुण करावे छे” आ रीते अज्ञानीओ उपादानने पराधीन माने
छे. उपादाननी स्वाधीनता जाहेर करतां ज्ञानीओ कहे छे के–जीव पोते समजे तो ते मुक्ति पामे