पोषः२४७३ प९
कह्युं के–नमिराज! तमारी वात मने पसंद न आवी, तमे बराबर कहेता नथी.
आ सांभळतां ज भरतना पुत्रो बोली ऊठया के–पिताजी! अमारा मामाजी तो बराबर ज कही रह्या छे.
आवी सीधी वातने तमे केम कबूलता नथी?
भरते कह्युं–तमे कोई कारणे तमारा मामानो पक्ष करी रह्या छो, रहेवा द्यो. आ मारा बीजा पुत्रो आवी रह्या
छे तेमने आ वात पूछीशुं. तेओ शुं कहे छे ते जुओ.
एटलामां पुरुराज अने गुरुराज ए बे कुमारो आव्या, तेमने भरतजीए पूछयुं त्यारे तेओए एम ज कह्युं
के निश्चयरत्नत्रय ज मोक्षनुं कारण छे–एम मामाजी कहे छे ते बराबर छे. पण भरत कहे–हुं ते स्वीकारतो नथी. ए
प्रमाणे कुमारो आवता गया अने भरत तेमने पूछता गया. बारसो कुमारोने पूछयुं पण ते बधाये द्रढताथी एक
प्रकारे उत्तर आप्यो. छेवटे सौथी मोटा कुमारो अर्ककीर्ति, आदिराज अने वृषभराज आव्या. भरतजीए तेमने प्रश्न
कर्यो के–बेटा, मारी अने तमारा मामा वच्चे एक विवाद उपस्थित थयो छे, तेनो निर्णय तमारे आपवो जोईए.
कुशळ कुमारो वचमां ज बोली ऊठया–पिताजी! आपना अने मामाजीना विवादमां वच्चे पडवानो अमारो अधिकार
नथी. आप लोको श्री आदिभगवंतना दरबारमां जई शको छो, त्यां सर्व निर्णय थई जशे. सम्राटे कह्युं–आ तो
साधारण वात छे, तमे सांभळो तो खरा. कुमारो! मुक्ति माटे आत्मधर्म अर्थात् निश्चयरत्नत्रयनी शुं आवश्यकता
छे? शुं व्यवहार के बाह्यधर्म ज पर्याप्त नथी? आ नमिराज कहे छे के– स्थुळधर्मनी (–व्यवहारधर्मथी) स्वर्गनी
प्राप्ति थाय छे–मोक्षनी प्राप्ति तेनाथी थती नथी, आत्मधर्मथी (–निश्चयधर्मथी) मुक्तिनी प्राप्ति थाय छे. आ
संबंधमां तमारो शुं मत छे ते जणावो.
आ सांभळतां ज ते पुत्रो आश्चर्यचक्ति थई गया. मनमां सोचवा लाग्या के–अरे, आ शुं! पिताजी तो
अमने हंमेशा कह्या करता हता के मुक्तिने माटे आत्मानुभव ए ज मुख्य साधन छे. अने आजे तेनाथी ऊलटुं आ
शुं कही रह्या छे! ! आनुं कारण शुं हशे! पुत्रोना संकोचने जोईने भरत बोल्या–पुत्रो! तमे संकोच न राखो. जे
सत्य होय ते कहो.
त्यारे कुमारो द्रढतापूर्वक बोल्या–पिताजी! निश्चयरत्नत्रय ए ज मोक्षनुं कारण छे, व्यवहार धर्म तो
शुभराग छे, ते मोक्षनुं कारण नथी; मामाजीनी वात बिलकुल सत्य छे, आपने पण ते मंजुर करवी जोईए.
छेल्ला कुमारोनी द्रढता जोईने चक्रवर्तीए कह्युं–बेटा, मने एम हतुं के तमारा भाईओए तो मामानो पक्ष
ग्रहण कर्यो परंतु तमे अवश्य मारा पक्षमां रहेशो. परंतु तमे पण मामानो ज पक्ष ग्रहण कर्यो...अच्छा, तमारी
मरजी!
कुमार बोल्या–पिताजी अमे जुठ केम बोली शकीए? अमने जे सत्य लाग्युं ते ज अमे कह्युं छे. सत्य वात
तो आपे पण स्वीकारवी जोईए.
कुमारोनी वात सांभळीने भरत चक्रवर्ती प्रसन्न थया अने नमिराज प्रत्ये कहेवा लाग्या–जुओ, गमे तेम
तोय आ बधाय श्री भगवान आदिनाथ स्वामीना पौत्रो छे! तेमनुं शुं वर्णन करुं! साक्षात् पिता होवा छतां पण
तेओए मारो पक्ष ग्रहण करीने वात न करी, पण जे यथार्थ मोक्षमार्ग छे ते ज तेओए कह्यो. आथी तेमनी
तत्त्वज्ञाननी द्रढता अने सत्यप्रियता छे ते जणाया वगर रहेती नथी...
* * * * *
अहा, धन्य ते धर्मकाळ अने ते धर्मात्माओ! ज्यारे पारणामांथी ज बाळकोने तत्त्वनां सींचन मळतां, साचुं
तत्त्वज्ञान घेर घेर मळतुं, अने ते आत्माओ पण कुमारवयथी ज तत्त्वना प्रेमीओ हता, तत्त्वज्ञान ए तेओना
जीवननुं मुख्य अंग हतुं...आजे पण...
हजी तत्त्वज्ञाननो सर्वथा विच्छेद नथी थयो, सत्पुरुषोनी परम करुणाथी आजे पण सत्य तत्त्वना धोध
वहेता थया छे, अने तत्त्वप्रेमी भव्य आत्माओ हजी आ भरतमां वसी रह्यां छे...ए रीते...आ भरतक्षेत्रमां फरीथी
धोरी धर्ममार्गना सुप्रभातनो उदय थाय छे...– धन्य ए धर्मकाळ –
(‘भरतेशवैभव’ भाग–२ पा. २२४ थी २२८ना आधारे)
ः सुवर्णपुरी समाचारः
१. हाल सवारे व्याख्यानमां अष्टपाहुड वंचाय छे, तेमां छठ्ठा मोक्षपाहुडनी ६० गाथा वंचाणी छे; बपोरे समयसार
(आठमी वखत) वंचाय छे, तेनी ४४ गाथा वंचाणी छे.
२. शासन नायक श्री कुंदकुंदभगवाननो आचार्यपद दिन महोत्सव–मागशर वद ८ना रोज घणा उत्साह अने
भक्तिपूर्वक उजवायो हतो.