Atmadharma magazine - Ank 039
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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मुक्तिनो उपाय
प्रश्नः चैतन्यना भान द्वारा सम्यग्दर्शन थया पछी शुं करवुं?
उत्तरः चैतन्यनुं भान थतां ज्ञानस्वभाव अन राग बंने भिन्नपणे अनुभवाय छे, तेमां चैतन्यनुं–ज्ञाननुं
ग्रहण करवुं अने बंधनो–रागनो त्याग करवो. वच्चे व्यवहार विकल्प वगेरे बंधभाव आवे तेने आत्मपणे ग्रहण
करवा नहि, पण बंधपणे जाणीने छोडी देवा. आम करवाथी ज बंधन टळीने मुक्ति थाय छे अने तेनो मूळ उपाय
सम्यग्दर्शन ज छे.
शुभराग छोडीने अशुभराग करवानी वात नथी परंतु शुभरागथी पण रहित वीतराग अकषाय स्वरूपनुं
भान करवानुं ज्ञानओ कहे छे. सम्यग्दर्शन पछी पण बहारनी दशामां तो मुनिपणुं नथी अने महाव्रतना विकल्पमां
पण खरूं मुनिपणुं नथी, पण सम्यग्दर्शनमां जे स्वभाव स्वीकार्यो ते अकषाय स्वभावनी स्थिरता ते ज मुनिदशा छे.
एवी लीनता जो न थई शके तो ओळखाणपूर्वक ते लीनतानो अभ्यास–प्रयत्न करवो, पण वच्चे जे विकल्पो आवे
तेने बंधन तरीके जाणीने तेमां धर्म न मानवो. पुण्य पाप बंने बंध छे एम जाणीने तेनो श्रद्धामां तो पहेलां ज छेद
करवो अने पुण्य–पापरहित ज्ञान–स्वभावनी श्रद्धा कर्या पछी जे शुभ विकल्प आवे तेने छोडीने शुद्ध स्वरूपमां
लीनता करवी ते ज आत्मानुं प्रयोजन छे–ते ज मुक्तिनो उपाय छे. (मोक्ष अधिकार गा.–२९७ना व्याख्यानमांथी)
एकवार तो जीवतां मर!
ः श्री पद्मनंदी पंचविंशतिकाः अनित्य अधिकारः
(परम पूज्य सदगुरुदेवनुं व्याख्यान. ता. १२–९–४४)
(एकवार तो जीवतां मर! एटले मरण टाणे तो आ देहथी छूटो पडवानो ज, पण जीवनमां देहथी जुदा
स्वरूपनुं भान करीने एकवार देहनुं धणीपणुं मूकी दे! जीवतां ज देहनुं धणीपणुं छोड! ‘आ शरीर नहीं, मन नहीं,
वाणी नहीं, श्वास नहीं, कर्म पण नहीं अने कर्मना निमित्ते थतां राग द्वेषना क्षणिक विकारी भाव पण नहीं, हुं तो
शुद्ध ज्ञानघन अरूपी आत्मा छुं’ एम एकवार बधा परनुं धणीपणुं छोडीने स्वभावनुं धणीपणुं कर! तो फरी
देहादिनो संयोज न रहे.) रात्रिचर्चा
शरीरादि अनित्य छे, छतां तेने माटे जगतना जीवो शुं शुं करी रह्या छे–तेनो अधिकार छे.
शरीरादि पर वस्तु छे, ते क्षणिक छे, संयोगी छे, अने आत्मा पोते नित्य छे, असंयोगी छे, पोते नित्य छे
तेने लक्षमां न लेतां शरीरादि अनित्य वस्तुने नित्य राखवा मागे छे. माताए बाळकने जन्म आप्या पहेलां ज ते
बाळक अनित्यतानी गोदमां आव्यो छे. जन्म थयां पहेलां ज मरण नक्की थयेलुं छे; केमके शरीर अने आत्मा ए
बेनो संयोग थयेलो छे, संयोग तेनो वियोग थया विना रहे नहीं.
मंगलाचरण करतां आचार्यदेव कहे छे केः– श्री जिनेन्द्र भगवान के जेमनी वाणी दयामय होवा छतां, धैर्य
(स्वरूपनी एकाग्रता) रूपी धनुष्यने धारण करनार एवा योगीओरूपी योद्धाओने, मोहरूपी दुश्मननो नाश करवा
माटे तीखा बाणोनी हार समान छे (बाणोनी हार समान एम कह्युं छे, वचमां भंगनी वात ज नथी) एवा
जिनेन्द्र वीतराग देव जगतमां जयवंत वर्ते छे.
जे दयामय होय ते कोईनो नाश करे नहीं, पण भगवाननी वाणीमां एवी विचित्रता छे के ते दयामय होवा
छतां पण योगीओना मोहने क्षणमात्रमां नाश करी दे छे; एवी आश्चर्यकारी वाणीना धरनारा श्री जिनेन्द्रदेव सदाय
जयवंत हो!
आचार्यदेव शरीरनुं अनित्यपणुं बतावे छेः–भाई रे! आ शरीरनो स्वभाव तो जो! शरीरने तुं ‘मारूं
मारूं’ करी रह्यो छो पण ए केवुं छे ते तो जो! एक दिवस तेने रोटला न आपवामां आवे तो जेम कमळनुं पान
अग्नि पासे करमाई जाय छे तेम आ शरीर शूष्क थई जाय छे एवा आ शरीरने तुं मारुं करीने राखवा मागे छे पण
भाई! आ शरीर तो परमाणुना संयोगे बनेलुं छे ते क्यां सुधी रहेशे एनो कोई निश्चय नथी; तुं भगवान आत्मा
तो अनादि–अनंत छो. शरीर ते तारी चीज नथी, शरीर तो संयोगे मळेली चीज छे तेनो वियोग जरूर थवानो! तो
पछी तेमां आश्चर्य नथी के ते तुरत जुदुं पडी जाय. आ शरीर तो राख्युं रहेवानुं नथी; अरे भाई! श्वास ऊंचो लीधो
ते नीचे मूकवो ए पण आत्माना हाथनी वात नथी.
मरनारनी पाछळ रडाकुट करनारने एक ठेकाणे कह्युं छे केः–
‘मरनाराने शीद रूओ तमे? रोनारा नथी रे’ वाना रे...’
आ संयोगी शरीरनो वियोग न थाय तो शुं असंयोगी तत्त्वनो वियोग थाय? जुओ तो खरा आ अनित्य
शरीर! लोही, मांस, हाडकां अने मळ–मूत्रथी ते भरेलुं छे अने तेना उपर आ चामडानो कोथळो छे, भूख अने
तरसरूपी उंदरडाने रहेवानुं बील छे, अने रागादि दुःखोनो तो भंडार छे एवा शरीररूपी झुंपडाने नित्य अने
शरणरूप–सुखरूप मानीने अज्ञानी जीवो अमृत–स्वरूप भगवान आत्मानुं शरण चूके छे ए बडा खेद है!