उत्तरः चैतन्यनुं भान थतां ज्ञानस्वभाव अन राग बंने भिन्नपणे अनुभवाय छे, तेमां चैतन्यनुं–ज्ञाननुं
करवा नहि, पण बंधपणे जाणीने छोडी देवा. आम करवाथी ज बंधन टळीने मुक्ति थाय छे अने तेनो मूळ उपाय
सम्यग्दर्शन ज छे.
पण खरूं मुनिपणुं नथी, पण सम्यग्दर्शनमां जे स्वभाव स्वीकार्यो ते अकषाय स्वभावनी स्थिरता ते ज मुनिदशा छे.
एवी लीनता जो न थई शके तो ओळखाणपूर्वक ते लीनतानो अभ्यास–प्रयत्न करवो, पण वच्चे जे विकल्पो आवे
तेने बंधन तरीके जाणीने तेमां धर्म न मानवो. पुण्य पाप बंने बंध छे एम जाणीने तेनो श्रद्धामां तो पहेलां ज छेद
करवो अने पुण्य–पापरहित ज्ञान–स्वभावनी श्रद्धा कर्या पछी जे शुभ विकल्प आवे तेने छोडीने शुद्ध स्वरूपमां
लीनता करवी ते ज आत्मानुं प्रयोजन छे–ते ज मुक्तिनो उपाय छे. (मोक्ष अधिकार गा.–२९७ना व्याख्यानमांथी)
वाणी नहीं, श्वास नहीं, कर्म पण नहीं अने कर्मना निमित्ते थतां राग द्वेषना क्षणिक विकारी भाव पण नहीं, हुं तो
शुद्ध ज्ञानघन अरूपी आत्मा छुं’ एम एकवार बधा परनुं धणीपणुं छोडीने स्वभावनुं धणीपणुं कर! तो फरी
शरीरादि पर वस्तु छे, ते क्षणिक छे, संयोगी छे, अने आत्मा पोते नित्य छे, असंयोगी छे, पोते नित्य छे
बाळक अनित्यतानी गोदमां आव्यो छे. जन्म थयां पहेलां ज मरण नक्की थयेलुं छे; केमके शरीर अने आत्मा ए
माटे तीखा बाणोनी हार समान छे (बाणोनी हार समान एम कह्युं छे, वचमां भंगनी वात ज नथी) एवा
अग्नि पासे करमाई जाय छे तेम आ शरीर शूष्क थई जाय छे एवा आ शरीरने तुं मारुं करीने राखवा मागे छे पण
भाई! आ शरीर तो परमाणुना संयोगे बनेलुं छे ते क्यां सुधी रहेशे एनो कोई निश्चय नथी; तुं भगवान आत्मा
तो अनादि–अनंत छो. शरीर ते तारी चीज नथी, शरीर तो संयोगे मळेली चीज छे तेनो वियोग जरूर थवानो! तो
पछी तेमां आश्चर्य नथी के ते तुरत जुदुं पडी जाय. आ शरीर तो राख्युं रहेवानुं नथी; अरे भाई! श्वास ऊंचो लीधो
ते नीचे मूकवो ए पण आत्माना हाथनी वात नथी.
‘मरनाराने शीद रूओ तमे? रोनारा नथी रे’ वाना रे...’
आ संयोगी शरीरनो वियोग न थाय तो शुं असंयोगी तत्त्वनो वियोग थाय? जुओ तो खरा आ अनित्य
तरसरूपी उंदरडाने रहेवानुं बील छे, अने रागादि दुःखोनो तो भंडार छे एवा शरीररूपी झुंपडाने नित्य अने
शरणरूप–सुखरूप मानीने अज्ञानी जीवो अमृत–स्वरूप भगवान आत्मानुं शरण चूके छे ए बडा खेद है!