Atmadharma magazine - Ank 039
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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पोषः२४७३ः ४७ः
त्यां बीजा संयोगो एना पोताना कारणे आवी मळे छे, अने तेनो वखत पूरो थता चाल्या जाय छे; त्यां गांडानी
जेम अज्ञानी जीव ‘मारूं मारूं’ करीने दुःखी थई रह्यो छे. ‘जेणे जोडी तेणे तोडी’ आ शरीर आव्युं अने ते छूटयुं.
शरीर न छूटे तो शुं ज्ञान छूटे? जेनो संयोग थयो हतो तेनो ज वियोग थाय छे. संयोग वखते जेमां सुख मान्युं हशे
तेना वियोग वखते दुःख थया विना रहेशे नहीं. पण जो संयोग वखते ज वियोगनुं भान हशे तो वियोग वखते
आकूळता थशे नहीं. संयोग–वियोग ते सुख–दुःखनुं कारण नथी, पण कल्पनामां सुख–दुःख अज्ञानी माने छे.
मनुष्यपणुं मळवुं ए तो अनंत अनंतकाळे दुर्लभ छे; ए दुर्लभ मनुष्यपणुं तो मळ्‌युं छे, पण मनुष्य थयो
एमां शुं दाळिया थया? मनुष्यपणुं पामीने जो जन्म–मरणना नाशनुं कारण एवुं सम्यग्दर्शन करी ल्ये तो मनुष्यपणुं
सार्थक छे. मनुष्यपणुं अनंतकाळे दुर्लभ, तेमां पण घणा जीवो तो गर्भमां ज मरी जाय छे, केटलाक जन्मता ज मरी
जाय छे, कोई बाल्यावस्थामां मरी जाय छे, अने लांबु आयुष्य होय तेमां घणा तो मांसाहारी कुळमां अने घणा
चांडाळ कुळमां जन्मे छे तेमने तो धर्म समजवानी वृत्ति ज थती नथी होती. आचार्यदेव कहे छे के संसारना दुःखोथी
मुक्त करवामां आत्मभान सिवाय जगतमां कोई समर्थ नथी. माटे आत्मभान ए ज प्रथम कर्तव्य छे.
वीस वर्षनो दीकरो छ महिनानी परणेतर बायडीने मूकी मरी जाय त्यां पाछळना शोक अने आर्तध्यान
करे! केम जाणे पोताने तो देह छोडवानो ज न होय? छोकरो तारो हतो ज क्यारे के रहे? शुं आत्माने दीकरो के बाप
होय? बीजानुं शुं थयुं ते जोवा बेठो छो पण पोतानुं शुं थाय छे ते जोतो नथी! भाई! परनुं तो अनादिथी जोतो
आव्यो छो, पण तारूं शुं थई रह्युं छे ते तो हवे जो! एक धर्म ज आत्माने धारी राखे छे. धर्म ए ज आत्माने
शरणभूत छे. (धर्म=स्वभाव).
एक ८० वर्षनी डोशी हती तेने कोई न हतुं, मात्र एकनो एक छोकरो हतो; ते छोकरो लाकडां कापीने बंनेनी
आजीविका चलावतो अने जंगलमां झुंपडी हती तेमां पडयां रहेतां. एकवार लाकडां कापतां तेना छोकराने सर्प
करडयो, डोसीने खबर पडी त्यां तो एकदम रोवा लागी अने माथुं कूटवा लागी. पण त्यां जंगलमां शरण कोण!
शरणभूत एवुं जे पोतानुं स्वरूप छे तेनां तो भान न मळे अने बहारमां शरण मानी राख्यां छे, पण बहारमांथी
शरण मळे तेम नथी.
हे बुद्धिमान पुरुषो! प्रिय वस्तुना संयोगमां हर्ष के वियोगमां शोक करवाथी शुं फायदो छे? अर्थात् कांई ज नथी.
मनुष्यो मोटा मोटा पर्वतो ओळंगी जाय छे. विशाळ नदीओ पण तरी जाय छे परंतु मरणकाळमां एक
क्षणनो फेर पाडवा कोई देव पण समर्थ नथी. मिथ्याद्रष्टि देव होय ते तो मरणटाणां आव्ये झुरे छे! केमके देवपणामां
मळेली सामग्रीना भोगवटामां ज जीवन पुरूं कर्युं छे तेथी तेना वियोग टाणे झुरे छे. अने ज्ञानी सम्यग्द्रष्टि देव होय
ते तो देह छूटवा टाणे शाश्वत जिनदेवनी प्रतिमा पासे जाय, त्यां खूब भक्ति करे के ‘अहो! जिनदेव! आप पूर्ण
थई गया, अमारा स्वरूपनी भावना अधूरी रही गई, हवे मनुष्य थईने अमारी आराधना पूर्ण करशुं’ एम खूब
भक्ति करीने जिन प्रतिमाजीना चरणकमळमां मस्तक नमावी दीए अने त्यां ज देहना परमाणुओ छुटा पडी जाय.
आम ज्ञानी अने अज्ञानीना मरणमां मोटो आंतरो छे.
जन्म–मरण ते तो जगतनुं स्वरूप छे, तेमां बीजुं लावीश क्यांथी? संसारमां जन्म–मरण न होय तो शुं
सिद्धने होय? संसारमां तो जन्म–मरण थया ज करे; माटे धर्मात्माए स्त्री, पुत्रादिना संयोगमां हर्ष के वियोगमां
शोक न करतां आत्मानुं–ध्यान करवुं, आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान करवां ए ज योग्य छे.
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ः नीतिनुं स्वरूपः
दरेक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ अने स्वभावे पोताथी छे अने परवस्तुना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावे ते
वस्तु नथी; तेथी दरेक वस्तु पोतानुं ज कार्य करी शके–एम जाणवुं ते खरी नीति छे.
जिनेन्द्रदेवे कहेलुं अनेकान्तस्वरूप, प्रमाण अने निश्चय–व्यवहाररूपनय ए खरी नीति छे. जे
सत्पुरुषो अनेकान्त साथे सुसंगतद्रष्टि वडे अनेकान्तमय वस्तुस्थितिने देखे छे तेओ स्याद्वादनी शुद्धिने
पामीने जिन नीतिने एटले के जिनेन्द्रदेवना मार्गने–न्यायने नहि उल्लंघता थका ज्ञानस्वरूप थाय छे. (मो.
शा. गु. टी. पा. ४०)