सुखरूप मोक्ष पामे छे.
अध्यात्मरूप. ज्यां सामान्य–विशेषरूपे सर्व पदार्थोनुं
प्ररूपण करवामां आवे ते आगमरूप छे, अने ज्यां एक
आत्माना ज आश्रये निरुपण करवामां आवे ते
अध्यात्म छे. तथा जिनआगमनी व्याख्याना अहेतुवाद
अने हेतुवाद एवा पण बे प्रकार छे. तेमां केवळ
सर्वज्ञदेवनी आज्ञावडे ज जे कथननी प्रमाणता मानीए
ते अहेतुवाद छे अने प्रमाणनय वडे वस्तुनी निर्बाध
सिद्धि करीने जे कथन मानीए ते हेतुवाद छे. आवा
प्रकारना आगममां निश्चय व्यवहार वडे केवुं व्याख्यान
छे ते अहीं केटलुंक लखीए छीए–
विशेषरूप अनंतधर्म स्वरूप छे ते ज्ञानगम्य छे, तेमां
सामान्यरूप तो निश्चयनयनो विषय छे अने जेटलुं
विशेषरूप छे तेने भेदरूप करीने जुदा जुदा कहेवा ते
व्यवहारनयनो विषय छे. तेने (सामान्य विशेषरूप
वस्तुने) द्रव्य–पर्याय स्वरूप पण कहेवाय छे.
विशेषरूप वस्तुनुं सर्वस्व होय ते तो निश्चय–व्यवहारवडे
उपर कह्युं ते रीते सधाय छे–जणाय छे. अने ते विवक्षित
वस्तुने कोई अन्य वस्तुना संयोगरूप अवस्था होय तेने
(अन्य वस्तुने) ते विवक्षित वस्तुरूप कहेवी ते पण
व्यवहार छे, तेने ‘उपचार’ पण कहेवाय छे; तेनुं
उदाहरण आ प्रमाणे–
ज्यारे ‘घडा’ नामनी एक विवक्षित वस्तु उपर
निश्चय–व्यवहार लगाडीए त्यारे ते घडाना द्रव्य–क्षेत्र–
काळ–भावरूप सामान्य–विशेषरूप जे कांई घडानुं सर्वस्व
छे ते, उपर जणाव्या मुजब, निश्चय–व्यवहारवडे कहेवुं ते
तो निश्चय–व्यवहार छे अने घडाने कोई अन्य वस्तुना
लेपथी ते घडाने ते अन्य वस्तुना नामथी कहेवो, तेम ज
अन्य वस्त्र वगेरेमां घडानो आरोप करीने तेने पण घडो
कहेवो ते पण व्यवहार छे.
‘घडो’ कहेवी ते तो प्रयोजनाश्रित व्यवहार छे अने कोई
अन्य वस्तुना निमित्तथी घडानी जे अवस्था थई ते
अवस्थाने घडारूप कहेवी ते निमित्ताश्रित व्यवहार छे.
आ प्रमाणे जीव–अजीव सर्व विवक्षित वस्तुओ पर
निश्चय–व्यवहार लगाडवा.
व्यवहारनुं स्वरूप कहे छे.
जीवने) पण आत्मा कहेवाय छे अने जे जीव अन्य सर्व
जीवोथी पोतानो भिन्न अनुभव करे तेने पण आत्मा
कहेवाय छे. ज्यारे पोतानो सर्वथी भिन्न अनुभव
करीने पोताना आत्मा उपर निश्चय व्यवहार
लगाडवामां आवे त्यारे आ प्रमाणे–
पर्यायात्मक जीव नामनी शुद्ध वस्तु छे, ते केवी छे? शुद्ध
दर्शन–ज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाधारण धर्म सहित
अनंत शक्तिनी धारक छे, तेमां सामान्य भेद चेतना–
अनंत शक्तिनो समूह ते द्रव्य छे; अनंतज्ञान, दर्शन,
सुख, वीर्य–के जे चेतनाना विशेष छे ते गुण छे; अने
अगुरुलघु गुणद्वारा षट्स्थानपतित हानि–वृद्धिरूप
परिणमता जीवना त्रिकालात्मक अनंत पर्यायो छे. एवी
जीव नामनी वस्तु सर्वज्ञदेवे देखी छे ते आगममां प्रसिद्ध
छे; ते तो एक अभेदरूप शुद्धनिश्चयनयना विषयभूत
जीव छे. ज्यारे आ द्रष्टि वडे (निश्चयनय वडे) अनुभव
करवामां आवे त्यारे तो जीव आवो छे.
–अने वस्तुना अनंत धर्मोमांथी भेदरूप कोई एक
धर्मने लक्षमां लईने कहेवुं ते व्यवहार छे.
आत्मवस्तुने अनादिथी पुद्गल कर्मनो संयोग छे,
तेना निमित्तथी विकारभावनी उत्पत्ति छे, तेना
निमित्तथी राग–द्वेषरूप विकार थाय छे तेने विभाव
परिणति कहेवाय छे, तेने लीधे फरीथी नवां कर्मोनो
बंध थाय छे; आ रीते अनादि निमित्त–नैमित्तिकभाव
वडे चतुर्गतिरूप संसारना भ्रमणरूप प्रवृत्ति थाय छे,
तेमां जे गतिने प्राप्त थाय तेवुं नाम जीवने कहेवामां