Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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माघः२४७३ः ६९ः
अन्वयार्थः– (प्रमाणवत हि) खरेखर प्रमाणनी जेम (नयानां) नय (अवश्यं भाव्यं फलवत्वेन) अवश्य
फळवान होवो जोईए (यतः) केम के (प्रमाण अवयवी स्यात) प्रमाण अवयवी छे अने; (तत् अंशत्वात्) ते
प्रमाणनो अंश होवाथी, (नया तत् अवयवाः स्युः) नय अवयव छे.
भावार्थः– प्रमाणनी माफक नय पण फळवान जरूर होवो जोईए, केमके प्रमाण अवयवी छे अने अंश–
अंशीभावसंबंधथी नय तेनो अवयव छे अर्थात् प्रमाणनो एक देश ते ज नय छे. तेथी प्रमाणनी जेम नयो पण
फळवान जरूर होवा जोईए.
उपरना कथननो सिद्धांत
तस्यादनुपादेयोव्यवहारोऽतद्गुणे तदारोपः।
इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीवः।।५६३।।
अन्वयार्थः– (तस्मात्)–माटे अर्थात् नय ते प्रमाणनो ज अंश होवाथी जरूर फळवान होवो जोईए तेथी
(अतद्गुणे तदारोपः व्यवहारः) अतद्गुणमां तदारोपण करवारूप व्यवहार एटले के जे वस्तुमां जे गुण न होय ते
वस्तुमां ते गुणनो आरोप करवारूप व्यवहारो (इष्टफल अभावात्) तेमां इष्टफळनो अभाव होवाथी, (अन् उपादेयः)
उपादेय नथी; (यथा) जेम के (इह जीवः वर्णादिमान्) अहीं जीवने वर्णादिवाळो कहेवो ते (नयः न) नय नथी.
भावार्थः– जीवमां जे गुण नथी ते गुणनो आरोप करीने पण जीवने वर्णादिवाळो कहेवाथी कांई फळ
नीकळतुं नथी तेमज तेनाथी इष्टनी सिद्धि पण थती नथी माटे तेने सम्यक्नय कही शकातो नथी अर्थात् जीवमां
वर्णादिनो आरोप करीने जीवने वर्णादिवाळो कहेवो ते नयाभास छे.
शंका
ननु चैवं सति नियमादुक्तासद्भूतलक्षणो न नयः।
भवति नयाभासः किल क्रोधादिनामतद्गुणारोपात्।।५६४।।
अन्वयार्थः– (ननु च) शंकाकार कहे छे के (ऐवं सति) एम मानवाथी तो (नियमात्) चोक्कसपणे, (उक्त
असद्भूतलक्षणः) कहेवामां आवेल असद्भूत लक्षणनय पण (नयः न) नय नहि ठरी शके पण (किल) खरेखर
(क्रोधादिनां अतद्गुण आरोपात्) क्रोधादिनो अतद्गुणमां आरोप होवाथी अर्थात् क्रोधादि जीवना गुण न होवा छतां
पण तेनो जीवमां आरोप करीने कहेवामां आवतो असद्भूतव्यवहारनय पण (नया भासः भवति) नयाभास ज ठरशे!
भावार्थः–शंकाकार कहे छे के–‘तद्गुणसंविज्ञान, उदाहरणसहित’ इत्यादि नयना लक्षण प्रमाणे, जो जीवने
वर्णादिवाळो कहेवामां, अतद्गुण आरोप होवाथी नयनुं लक्षण लागु पडी शकतुं नथी अर्थात् जीवने वर्णादिवाळो
कहेवो ते नयाभास छे तो पछी आपना ते कथन अनुसार असद्भूत व्यवहारनयना विषयभूत बुद्धिपूर्वक थनारा
क्रोधादिकने जीवना कहेवा ते पण वास्तविकनय नहि ठरतां नयाभास ज ठरशे केम के जीवने क्रोधादिवाळो कहेवो त्यां
पण अतद्गुणनो ज आरोप छे अर्थात् क्रोध ते जीवनो गुण न होवा छतां तेने आरोपथी जीवनो कहेवामां आव्यो
छे माटे बुद्धिपूर्वक थनारा क्रोधादिकने जीवना कहेवा ते पण सम्यक्नय कही शकाशे नहि.
समाधान
नैवं यतो यथा ते क्रोधाद्याः जीवसंभवा भावाः।
न तथा पुद्गलवपुषः सन्ति च वर्णादयो हि जीवस्य।।५६५।।
अन्वयार्थः– (न ऐवं) ए प्रकारनुं कहेवुं बराबर नथी, (यतः) केमके (यथा ते क्रोधाद्याः भावाः
जीवसंभवा) जे रीते ते क्रोधादिकभाव जीवना संभवे छे (तथा पुद्गलवपुषः वर्णादयः) ते रीते पुद्गलात्मक
शरीरना वर्णादिक (हि जीवस्य न च सन्ति) जीवना संभवी शकता ज नथी.
भावार्थः– उपर कहेली शंका बराबर नथी, कारण के ते क्रोधादिकभाव तो जीवमां थनारा औदयिकभावरूप छे
तेथी ते जीवना तद्गुण छे; ते जीवनो–नैमित्तिकभाव होवाथी तेने सर्वथा पुद्गलनो कही शकातो नथी. अने जीवने
वर्णादिवाळो कहेवामां आवे त्यां तो वर्णादिक सर्वथा पुद्गलना ज होवाथी तेने जीवना कई रीते कही शकाय?
वळी बुद्धिपूर्वक थनारा क्रोधादिभावने जीवना कहेवामां तो ए प्रयोजन छे के–परलक्षे थनारा क्रोधादिकभावो
क्षणिक होवाथी अने आत्मानो स्वभाव नहि होवाथी ते उपादेय नथी–माटे तेने टाळवा जोईए आवुं सम्यग्ज्ञान
थाय छे, तेथी क्रोधने जीवनो कहेवो तेमां तो उपर्युक्त सम्यक्नय लागु पडी शके छे; परंतु जीवने वर्णादिवाळो
कहेवामां तो कांई पण प्रयोजननी सिद्धि थई शकती नथी. माटे जीवने क्रोधादिवाळो कहेनारा असद्भूतव्यवहारमां
तो नयाभासपणानो दोष आवतो नथी पण जीवने वर्णादिवाळो कहेवामां ते दोष आवे छे तेथी ते नयाभास छे.
(चालुं...)