ः ६८ः आत्मधर्मः ४०
विकार पोताना दोषथी पोतानी अवस्थामां थाय छे, तेथी तेने टाळवा माटे असद्भूतव्यवहारनयथी आत्माना
जाणवा ते सम्यक्नय छे. (गाथा प६४–प६प) जीव पोताना दोषथी ते विकार करे छे पण ते विकार असद्भूत छे
तेथी पोते टाळे तो ते टाळी शकाय छे एवुं ज्ञान थतां पोते विकार टाळे छे, ते आ नयनुं फळ छे.
(प) नयाभासोनुं निरूपण करवानी भूमिका बांधी छे. (गाथा–प६६) शरीर अने जीव भिन्न द्रव्यो छे
छतां शरीरने जीवनुं मानवुं ते अपसिद्धांत छे. जीव अने शरीरनो संबंध कोई नये साचो छे एम ज्यां सुधी जीव
जाणे त्यां सुधी तेने अनादिथी चाली आवती शरीर साथेनी एकत्वबुद्धि टळे नहि, माटे जीवने शरीरवाळो कहेनारो
नय मिथ्यानय छे. (गाथा–प६७–प६८)
(६) जीव अने शरीर एक क्षेत्रावगाही होवाने लीधे तेने एक कहेवां ते मिथ्यानय छे; तेमां अति व्याप्ति
दोष आवे छे केम के एकक्षेत्रावगाहपणे तो बधाय द्रव्यो छे. (गाथा– प६९)
(७) जीव अने शरीरने बंध्य–बंधकभाव छे एम कहेवुं ते पण मिथ्यानय छे, केम के ते भिन्न द्रव्यो छे
अने भिन्न द्रव्योेनो जो बंध थई जाय तो बे मळीने एक द्रव्य थई जाय. (गाथा–प७०)
(८) जीवने शरीर साथे निमित्त–नैमित्तिकभाव कहेवो ते पण मिथ्यानय छे, केम के दरेक वस्तु स्वयं
परिणमनारी छे, तो तेमां अन्यना निमित्तपणाथी शुं फायदो छे? स्वतः परिणमनशील वस्तुने माटे निमित्त–
कारणनुं कांई प्रयोजन नथी. (गाथा–प७१)
(९) जीव नोकर्म अने कर्मना कार्यनो कर्ता–भोक्ता छे एम कहेवुं ते पण नयाभास छे. (गाथा–प७२)
(१०) उपर कहेला नय मिथ्यानयो शा माटे छे तेनां कारणो बतावीने, ते मान्यता सिद्धांत विरुद्ध छे एम
जणाव्युं छे. (गाथा–प७३–प७४)
(११) जीवने परद्रव्यनो कर्ता भोक्ता कहेवाना भ्रमनुं कारण अने तेनुं समाधान. (गाथा–प७प–प७६)
(१२) कुंभार पोताना भावनो कर्ता–भोक्ता छे, पण कुंभार घडानो कर्ता–भोक्ता नथी. कुंभार घडानो कर्ता
छे–एवो लोकव्यवहार ते मिथ्यानय छे. (गाथा–प७७–प७८–प७९)
(१३) घर, धन, धान्य, स्त्री, पुत्र वगेरे परपदार्थोनो कर्ता–भोक्ता जीव छे एम कहेवुं ते पण मिथ्यानय
छे. (गाथा–प८० थी प८४)
(१४) बोध्यबोधक (ज्ञेय–ज्ञायक) संबंधथी ज्ञानने ज्ञेयगत कहेवुं ते मिथ्यानय छे. (गाथा–प८प थी प८७)
७. श्री पंचाध्यायीनी आ प६१ थी प८७ सुधीनी गाथाओ घणी उपयोगी होवाथी ते गाथाओ शब्दार्थ तथा
भावार्थ साथे नीचे आपी छे; मुमुक्षुओए ते बराबर वांचीने तेना भाव यथार्थ समजवानी जरूर छे. निमित्त
नैमित्तिक संबंधने यथार्थ पणे समज्या विना ते संबंधी जे जुठी मान्यताओ चाली रही छे ते आ समजवाथी टळी
जशे. ‘एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यनी व्याप्य–व्यापकभावे कर्ता नथी ए खरुं पण निमित्त नैमित्तिकभावे तो कर्ता
छे! अथवा कोई वखते उपादान कारणनी मुख्यताथी कार्य थाय अने कोई वखते निमित्त कारणनी मुख्यताथी कार्य
थाय’–एवो जे मिथ्याभ्यास जीवोने रह्या करे छे ते आ गाथाओने यथार्थपणे समजवाथी टळी ज जशे, माटे आ
गाथाओने काळजीपूर्वक वांचीने तेना भाव यथार्थपणे समजवा.–संपादक
सम्यक् तथा मिथ्यानयनुं लक्षण
तद्गुणसंविज्ञान सोदाहरणः सहेतुरथ फलवान्।
यो हि नयः स नयः स्याद्विपरीतो नयो नयाभासः।। ५६१।।
अन्वयार्थः– (हि) निश्चयथी (यः नयः) जे नय(तद्गुण–संविज्ञानः)* तद्गुणसंविज्ञान,
(सोदाहरणः) उदाहरण सहित [सहेतु] सहेतुक [अथ] अने [फलवान्] फळवान होय (सः नयः) ते नय छे,
तथा (विपरीतः नयः) तेनाथी विपरीत नय छे ते (नयाभासः स्यात्ः) नयाभास छे.
भावार्थः– जे नय तद्गुणसंविज्ञान अर्थात् तद्गुणनो बोधक (वस्तुना पोताना भावने बतावनार) होय तथा
उदाहरण, हेतु अने प्रयोजन सहित होय छे ते विकलादेशात्मक (वस्तुना एक पडखांने बतावनार) वास्तविकनय कहेवाय
छे, तथा तेनाथी विपरीत एटले के तद्गुणपणुं, उदाहरण, हेतु अने फळनो जेमां अभाव होय ते नयाभास कहेवाय छे.
प्रमाणनी जेम नय पण फळवान होवो जोईए
फलवत्वेन नयानां भाव्यमवश्यं प्रमाणवद्धि यतः।
स्यादवयविप्रमाणं स्युस्तदवयवा नयास्तदंशत्वात्।। ५६२।।
* तद्गुण– जीवना–भावो ते जीवना तद्गुण छे, पुद्गलनाभावो ते पुद्गलना तद्गुण छे.