Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ७०ः आत्मधर्मः ४०
श्री सर्वज्ञाय नमः।। ।। श्री वीतरागाय नमः
उपादान–निमित्त संवाद
भैया भगवतीदासजी कृत–लेखांक चोथो
(आ उपादान–निमित्त संवादना ४७ दोहानुं व्याख्यान वीर सं. २४७१ना पर्युषण दरमियान वंचाई गयेल छे
तेमांथी २२ थी ३१ दोहानुं व्याख्यान आत्मधर्म मासिकना ३९ मां अंकमां आवी गयेल छे.
अहीं त्यार पछी आगळना दोहाओनुं व्याख्यान आपवामां आवे छे.
निमित्त कहे छे केः–
कहै निमित्त जगमैं बडो, मो तैं बडो न कोय;
तीन लोकके नाथ सब, मो प्रसादतैं होय. ३२.
अर्थः–निमित्त कहे छे– जगतमां हुं मोटो छुं, माराथी मोटो कोई नथी; त्रण लोकनो नाथ पण मारी कृपाथी
थाय छे.
नोंधः–सम्यग्दर्शननी भूमिकामां ज्ञानी जीवने शुभ विकल्प आवतां तीर्थंकर नामकर्म बंधाय छे, ते द्रष्टांत
रजु करीने निमित्त पोतानुं बळवानपणुं आगळ धरे छे.
आत्मस्वभावनो अजाण अने राग तरफनो पक्षकार कहे छे के–भले, सम्यग्द्रष्टि जीवो शुभरागनो आदर
नथी करता, तेने पोतानो नथी मानता, छतांपण त्रणलोकना नाथ थाय एवुं जे तीर्थंकरपद ते तो मारी ज
(निमित्तनी) महेरबानीथी थाय छे एटले के निमित्त तरफना लक्ष वगर तीर्थंकरगोत्र बंधातुं नथी माटे त्रण लोकना
नाथ तीर्थंकरदेव पण मारा ज कारणथी तीर्थंकर थाय छे. आवी निमित्त तरफनी दलील छे परंतु तेमां भूल छे.
निमित्तनी महेरबानीथी (पर लक्षे रागथी) तो जड परमाणुओ बंधाय छे परंतु तेनाथी कांई तीर्थंकर पद एटले
केवळज्ञान प्रगटतुं नथी. तीर्थंकरपद तो आत्मानी वीतराग–सर्वज्ञदशा छे. निमित्ताधीन पराश्रित द्रष्टिवाळो माने छे
के तीर्थंकरगोत्रना पुण्यना परमाणुओ बंधाणा तेनाथी मोटप छे– एम ते पुद्गलनी धूडथी आत्मानी मोटाई बतावे
छे; परंतु निमित्त तरफना जे भावथी तीर्थंकरगोत्रना जड परमाणुओ बंधाय ते राग मोटो? के उपादान
तरफना जे भावे ते राग टाळीने पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञानदशा प्रगटे ते भाव मोटो?
एटलुं ध्यान राखवुं के तीर्थंकरगोत्रना परमाणुओ बंधाय ते रागभावथी बंधाय छे, परंतु वीतरागता अने
केवळज्ञान ए कांई ते तीर्थंकरगोत्रबंधना राग भावथी थता नथी, परंतु ते रागभाव टाळीने स्वभावनी स्थिरताथी
ज त्रिलोक पूज्य अरिहंतपद प्रगटे छे. माटे राग मोटो नथी, परंतु राग टाळी पूर्णपद पामी स्वरूप प्रगट करे छे ते
ज महानपद छे. –३२–
उपादान उत्तर आपतां निमित्तने बराबर ढंढोळे छेः–
उपादान कहै तुं कहा, चहुं गतिमें ले जाय;
तो प्रसादतैं जीव सब, दुःखी हो हिं रे भाय. ३२.
अर्थः– उपादान कहे छे–अरे निमित्त! तुं कोण? तुं तो जीवने चारे गतिमां लई जाय छे. भाई, तारी कृपाथी
सर्वे जीवो दुःखी ज थाय छे.
निमित्त तो एम कहेतुं हतुं के मारी कृपाथी जीव त्रण लोकनो नाथ थाय छे, तेनी विरुद्धमां उपादान तो एम
कहे छे के तारी कृपाथी तो जीव संसारनी चार गतिमां रखडे छे. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव पण संसारनुं
कारण छे. ध्यान राखीने बराबर समजजो, कडक पडे तेवुं छे. जे भावे तीर्थंकरगोत्रनुं आत्माने बंधन थयुं ते भाव
विकार छे–संसार छे, केम के जे भावे नवुं बंधन थयुं ते रागना कारणे तो जीवने नवो भव करवो पडे छे, माटे
निमित्तनी कृपाथी (रागथी) तो जीव चार गतिमां रखडे छे. रागनुं फळ ज संसार छे. जो के तीर्थंकरगोत्र बंधाय
एवी जातनो आत्मभानसहितनो राग तो सम्यग्द्रष्टिने ज होई शके, तोपण तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते रागथी तेओ
राजी थता नथी परंतु तेने नुकशान कर्ता ज माने छे. जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भावे तीर्थंकरपद प्रगटे नहि
पण ते भावना नाशथी केवळज्ञान अने तीर्थंकरपद प्रगटे छे.
निमित्ते दलील करी हती राग तरफथी अने उपादान दलील करे छे स्वभाव तरफथी. सम्यग्ज्ञान द्वारा
खुलासो एम थाय छे के निमित्तना लक्षे थतो तीर्थं–