Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 21

background image
माघः २४७३ः ७१ः
करगोत्रनो रागभाव तो संसारना भवनुं कारण छे अने उपादान स्वरूपना लक्षे स्थिरता ते ज मोक्षनुं कारण छे.
निमित्त तरफना लक्षे थतो भाव उपादान स्वरूपनी स्थिरताने रोकनार छे. कोई पण प्रकारनो राग भाव ते संसारनुं
ज कारण छे, पछी भले ते राग तिर्यंच गोत्रनो हो के तीर्थंकर गोत्रनो हो. जुओ! श्रेणिक राजाने आत्मभान हतुं
छतां रागमां अटकया हता तेथी, तीर्थंकर गोत्र बंधाणुं होवा छतां, बे भव करवा पडशे.
प्रश्नः– बे भव करवा पडे ए सारूं नहि ते तो ठीक; परंतु जे भव तीर्थंकरगोत्र बांधे ते ज भवे मोक्ष पामे तो
तो जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाणुं ते भाव सारो के नहि?
उत्तरः– सिद्धांतमां फेर न पडे. उपर ज कह्युं छे के ‘कोईपण प्रकारनो रागभाव ते संसारनुं ज कारण छे.’
भले कोई जीव जे भवे तीर्थंकरगोत्र बांधे ते ज भवे मोक्ष जाय, तोपण जे भावथी तीर्थंकरगोत्र बंधाणुं ते तो
रागभाव ज छे अने ते रागभाव तो केवळज्ञान अने मोक्षने अटकावनारो ज छे. ज्यारे ते राग टळे त्यारे ज ते
केवळज्ञानी तीर्थंकर थाय.
प्रश्नः– भले तीर्थंकरगोत्रनो राग तो खराब छे, परंतु तीर्थंकरगोत्र जे जीवे बांध्युं ते जीवने केवळज्ञान
अवश्य थाय ज. तीर्थंकरगोत्र बांधवाथी एटलुं तो नक्की थई ज गयुं के ते जीव केवळज्ञाननो अने मोक्ष पामवानो
ज–माटे एटलुं तो निमित्तनुं जोर कहेशो के नहि?
उत्तरः– भाई रे! केवळज्ञान अने मोक्षदशा तो आत्माना सम्यग्दर्शनादि गुणोथी थाय छे के जे भावथी
तीर्थंकरगोत्र थयुं ते रागभावथी थाय छे? रागभावथी मोक्ष थवानुं नक्की थयुं नथी परंतु ते जीवने सम्यग्दर्शननुं
अप्रतिहत जोर छे तेना कारणे, अल्पकाळमां मुक्ति पामवानो छे–एम नक्की थयुं छे. जे रागथी धर्म माने अने
रागथी केवळज्ञान माने ते तीर्थंकरगोत्र तो न बांधे परंतु तेतर गोत्र बांधे... केमके तेनी मान्यतामां रागनो आदर
होवाथी वीतराग स्वभावनो अनादर करतो करतो ते पोतानी ज्ञान शक्तिने हारी जईने हलकी गतिमां चाल्यो जशे.
वळी, आपण एक समजवा जेवो न्याय छे के, जे कारणे तीर्थंकरगोत्रप्रकृति बंधाणी ते कारणने (–रागने)
टाळ्‌या वगर ते प्रकृति फळ पण आपती नथी. जे तीर्थंकर प्रकृति बंधाणी ते तो घणो वखत सुधी फळ पण आपती
नथी. क्यां सुधी ते फळ नथी आपती? के जे रागभावे तीर्थंकरगोत्र बांध्युं तेथी विरुद्धभाववडे ते रागभावनो
सर्वथा क्षय करी केवळज्ञान प्रगट करे त्यारे ते प्रकृतिनुं फळ आवे अने ते फळ पण आत्मामां तो न आवे, परंतु
बहारमां समवसरणादिनी रचना थाय. आ रीते तीर्थंकरगोत्र जे भावे बांध्यु ते भाव तो केवळज्ञान थतां छूटी ज
गयो छे, कांई ते भाव केवळज्ञानदशामां रहेतो नथी. तो जे भाव पोते नाश पामी गयो ते भावे केवळज्ञानमां शुं
मदद करी? माटे अरे निमित्त! तारा उपरनी द्रष्टिथी जीव त्रणलोकनो नाश तो थतो नथी परंतु त्रणलोकमां ते
अज्ञानभावे रखडे छे–तेथी तुं जीवने चार गतिमां लई जाय छे.
उपादानद्रष्टिः–स्वाधीन स्वभावनी कबुलात; हुं परिपूर्ण स्वरूप छुं, मारी पवित्रदशारूपी कार्यने कोईनी
मदद वगर हुं ज मारी शक्तिथी करुं छुं–आवुं पोताना स्वभावनी श्रद्धानुं जोर ते उपादान द्रष्टि छे अने ते
मुक्तिनो उपाय छे.
निमित्तद्रष्टिः– पोताना स्वभावने भूलीने पर द्रव्यानुसारी भाव; स्वाधीन आत्मानुं लक्ष चूकीने जे कोई
भाव थाय ते बधा भावो पराश्रित छे अने ते पराश्रित भाव संसारनुं कारण छे. साक्षात् तीर्थंकरना लक्षे जे भाव
थाय ते भाव पण दुःखरूप अने संसारनुं ज कारण छे. पुण्यनो राग ते पण पर लक्षे ज थतो होवाथी दुःख अने
संसारनुं ज कारण छे. माटे पराधीन–दुःखरूप होवाथी निमित्तद्रष्टि छोडवा जेवी छे अने स्वाधीन–सुखरूप होवाथी
उपादान स्वभावद्रष्टि ज अंगीकार करवा जेवी छे.
भाई रे! आ तो श्रीभगवान पासेथी आवेला हीरा सराण पर चढे छे. एक पण न्यायनी जो ऊंधी
समजण पकडे तो संसार थाय अने जो यथार्थसंधि करीने बराबर समजे तो मुक्ति थाय. अहो! आ वात तो
वीतराग भगवान ज करे...वीतरागना जे सेवको ते पण वीतराग ज छे ने! वीतराग अने वीतरागना सेवको
सिवाय आ वात करवा कोई समर्थ नथी.
त्रिकाळी स्वतंत्रस्वभावी होवा छतां अनादिथी आ आत्मा केम संसारमां रखडी रह्यो छे? अनादिथी
पोतानी भूलने जीवे ओळखी नथी. बंध–मुक्त पोते पोताना भावे ज थाय छे छतां परना कारणे पोताने