करगोत्रनो रागभाव तो संसारना भवनुं कारण छे अने उपादान स्वरूपना लक्षे स्थिरता ते ज मोक्षनुं कारण छे.
निमित्त तरफना लक्षे थतो भाव उपादान स्वरूपनी स्थिरताने रोकनार छे. कोई पण प्रकारनो राग भाव ते संसारनुं
ज कारण छे, पछी भले ते राग तिर्यंच गोत्रनो हो के तीर्थंकर गोत्रनो हो. जुओ! श्रेणिक राजाने आत्मभान हतुं
छतां रागमां अटकया हता तेथी, तीर्थंकर गोत्र बंधाणुं होवा छतां, बे भव करवा पडशे.
रागभाव ज छे अने ते रागभाव तो केवळज्ञान अने मोक्षने अटकावनारो ज छे. ज्यारे ते राग टळे त्यारे ज ते
केवळज्ञानी तीर्थंकर थाय.
ज–माटे एटलुं तो निमित्तनुं जोर कहेशो के नहि?
अप्रतिहत जोर छे तेना कारणे, अल्पकाळमां मुक्ति पामवानो छे–एम नक्की थयुं छे. जे रागथी धर्म माने अने
रागथी केवळज्ञान माने ते तीर्थंकरगोत्र तो न बांधे परंतु तेतर गोत्र बांधे... केमके तेनी मान्यतामां रागनो आदर
होवाथी वीतराग स्वभावनो अनादर करतो करतो ते पोतानी ज्ञान शक्तिने हारी जईने हलकी गतिमां चाल्यो जशे.
नथी. क्यां सुधी ते फळ नथी आपती? के जे रागभावे तीर्थंकरगोत्र बांध्युं तेथी विरुद्धभाववडे ते रागभावनो
सर्वथा क्षय करी केवळज्ञान प्रगट करे त्यारे ते प्रकृतिनुं फळ आवे अने ते फळ पण आत्मामां तो न आवे, परंतु
बहारमां समवसरणादिनी रचना थाय. आ रीते तीर्थंकरगोत्र जे भावे बांध्यु ते भाव तो केवळज्ञान थतां छूटी ज
गयो छे, कांई ते भाव केवळज्ञानदशामां रहेतो नथी. तो जे भाव पोते नाश पामी गयो ते भावे केवळज्ञानमां शुं
मदद करी? माटे अरे निमित्त! तारा उपरनी द्रष्टिथी जीव त्रणलोकनो नाश तो थतो नथी परंतु त्रणलोकमां ते
अज्ञानभावे रखडे छे–तेथी तुं जीवने चार गतिमां लई जाय छे.
मुक्तिनो उपाय छे.
थाय ते भाव पण दुःखरूप अने संसारनुं ज कारण छे. पुण्यनो राग ते पण पर लक्षे ज थतो होवाथी दुःख अने
संसारनुं ज कारण छे. माटे पराधीन–दुःखरूप होवाथी निमित्तद्रष्टि छोडवा जेवी छे अने स्वाधीन–सुखरूप होवाथी
उपादान स्वभावद्रष्टि ज अंगीकार करवा जेवी छे.
वीतराग भगवान ज करे...वीतरागना जे सेवको ते पण वीतराग ज छे ने! वीतराग अने वीतरागना सेवको
सिवाय आ वात करवा कोई समर्थ नथी.