Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७३ः ७३ः
जाय तो ते दुःखी थाय–तो सुखी कोने लईने थाय? अर्थात् जीव पर निमित्तना लक्षे शुभभाव करीने पुण्य बांधीने
तेना फळमां सुखी थाय छे माटे जीवने सुखी थवामां पण निमित्तनी ज मदद छे. आना जवाबमां उपादान तेनी
मूळभूत भूल बतावे छे के हे भाई! तुं जे पुण्यना फळने सुख कहे छे ते सुख ज नथी, परंतु ए तो दुःखनुं ज मूळ
छे. पुण्यने अने पुण्यना फळने पोतानुं स्वरूप मानीने जीव मिथ्यात्वनी महापुष्टि करीने अनंत संसारमां दुःखी थाय
छे माटे अहीं पुण्यने दुःखनुं ज मूळ कह्युं छे. पांच इन्द्रियना विषय तरफनुं वलण तो दुःख छे ज पण पंचमहाव्रतोना
भाव ते पण आस्रव छे–दुःखनुं मूळ छे.
स्वभाव तरफनो भाव ते सुखनुं मूळ छे अने निमित्त तरफनो भाव ते दुःखनुं मूळ छे. ऊंचामां ऊंचा
पुण्यपरिणाम पण नाशवान छे, माटे पुण्य ते सुखरूप नथी. आत्माना ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए ज सुखरूप छे.
श्रीप्रवचनसारजीमां स्वर्गना सुखने ऊना धगधगता घी समान कह्यां छे; जेम घी पोताना स्वभावथी तो शीतळता
करनारूं छे परंतु अग्निनुं निमित्त पामीने पोते विकृत थतां ते ज घी दझाडवानुं कार्य करे छे; तेम आत्मानो अनाकूळ
ज्ञान स्वभाव पोते सुखरूप छे, परंतु ज्यारे ते स्वभावमांथी खसीने पोते निमित्तनुं लक्ष करे छे त्यारे आकुळता
थाय छे, तेमां जो शुभराग होय तो पुण्य छे अने अशुभराग होय तो पाप छे; परंतु पुण्य ते धगधगता घीनी माफक
जीवने आकुळतामां बाळनारा छे अने पापथी तो साक्षात् अग्नि समान नरकादिमां जीव अत्यंत दुःखी थाय छे. माटे
हे भाई निमित्त! तुं पुण्यना संयोगथी जीवने सुख माने छे परंतु तेमां सुख नथी. पुण्यना फळमां मळेला पांच
इन्द्रियोना विषयोना संयोगथी जीवने कई रीते सुख थाय? ऊलटुं पांच इन्द्रियोना विषयनुं लक्ष करवाथी जीव
आकुळित थईने दुःख भोगवे छे. सुख तो आत्माना अंतर स्वभावमां छे. अविनाशी ज्ञायक स्वभावना लक्षे, तेनी
श्रद्धा–ज्ञान अने स्थिरताथी जीव सुखी थाय छे, माटे अविनाशी उपादान स्वभावने ओळखीने तेना लक्षे ठरवुं
जोईए अने निमित्तनुं लक्ष छोडवुं जोईए. –३प–
आत्माने सुख जोईए छे, आत्माने पोताना सुख माटे शुं कोई बीजा पदार्थनी मददनी जरूर छे के पोताने
पोताना स्वरूपनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां रमणता करवानी जरूर छे? सुखी थवा माटे प्रथम तेनो उपाय तो नक्की
करवो पडशे ने! ए नक्की करवा माटे आ उपादान–निमित्तनो संवाद चाले छे.
अहीं आ हजारो आत्माओ आव्या छे ते बधा शा माटे आव्या छे? सुखनो मार्ग समजीने सुखी थवा
माटे ज बधा आव्या छे. कांई कोई आत्मा नरकमां जवा अने दुःखी थवा इच्छे नहि. सुखी थनारनुं सुख तो
स्वाधीनपणामां होय के पराधीनपणामां? जो सुख परने आधीन होय तो ते नाश पामी जाय अने दुःख आवे,
परंतु स्वाधीन सुख छे अने ते आत्मामां ज स्वतंत्रपणे छे. कोई पर चीजनी हाजरीवडे आत्माने सुख मळे ए
मान्यता खोटी छे, पराधीनद्रष्टि छे अने महा दुःख आपनारी छे. पैसा वगेरेथी मने सुख मळे अगर तो साचा
देव–गुरु–शास्त्रथी आत्माने धर्म थाय एवी जे परपदार्थने आधीनपणानी मान्यता ते आत्माने पोतानी
शक्तिमां लूलो–पांगळो बनावनारी छे, एवुं थवुं कोने गमे? जे जीव परवस्तुथी पोताने सुख–दुःख माने छे ते
जीवे पोताने शक्तिहीन लूलो, पांगळो मान्यो छे. जेने निमित्ताधीन द्रष्टि छे तेने आत्मशक्तिनी संभाळ नथी
अने तेथी तेवा जीवो चार गतिमां दुःखी थई रह्या छे. जगतना जीवो पोताना आत्माना सामर्थ्यनी संभाळ
करता नथी अने आत्माने परनुं अवलंबन मानीने, तेनाथी शांति–सुख माने छे परंतु ते मान्यता साची नथी,
परना अवलंबने सुख–शांति छे ज नहि. स्वतंत्रतानी साची मान्यता न होय तो तेमांथी स्वतंत्र सुख न ज
आवे, माटे परतंत्रपणानी (निमित्त आधीनपणानी) श्रद्धामां दुःख ज छे. धर्म अथवा सुख आत्मानी
ओळखाण द्वारा ज थाय छे.
आ उपादान–निमित्तना संवादमां गईकाले ३प दोहा पूरा थया छे. निमित्तनी छेल्ली दलील एम हती के–
भाई! बधा दुःखना पोटला मारा उपर ढोळ्‌या, तो सुख–शांति शेमांथी मळे! बधी अनुकुळता होय तो सुख थाय
ने! त्यारे उपादाने तेनी दलीलनो नकार करतां कह्युं के अनुकुळ सामग्रीमां आत्मानुं सुख छे ज नहि. ‘शरीर सरखुं
होय, निरोगता होय, उंमर पाकट थाय, भुक्त–भोगी थईए एम बधुं पार करीने पछी मरवा टाणे निरांते धर्म
थाय’ आवी महा पराधीन द्रष्टिथी आत्मा पोते जीवनमां कदी सत्समागमे अंतरथी धर्म समजवानो उपाय न करे
तो तेने धर्म