ः ७४ः आत्मधर्मः ४०
थाय नहि अने मुक्तिनो उपाय न मळे, ते संसारमां रखडे. सत् समजवानां अपूर्व टाणे जेणे समजवानी ना पाडी
ते पोताना स्वभावनो अनादर करीने संयोग बुद्धिथी असत्नो आदर करीने अनंत संसारमां दुखित थईने रखडे
छे; अने जेणे समजवानो अंतरथी उल्लास लावीने स्वभावनो सत्कार कर्यो ते उपादानना जोरे अल्पकाळमां
संसारमुक्त थईने परमसुखने पामशे.
अहीं एम स्वाधीनता समजावे छे के हे भाई! तुं तारी अवस्थामां भूल करे छे ते भूल तने कोई बीजुं
करावतुं नथी, परंतु तें पोताने भूलीने मने परथी सुख थाय’ एवी उंधी मान्यता करी छे तेथी ज दुःख छे. भूलनो
करनार पण तुं छो अने भूलनो भांगनार पण तुं ज छो. स्वभावने भूलीने जे भूल तें करी छे. ते भूलने
स्वभावनी ओळखाण करीने काढी नांख तो सुख तो तारा अविनाशी स्वरूपमां ज भर्युं छे ते तने प्रगट थाय. आ
रीते उपादान स्वाधीनपणे कार्य करे छे.
निमित्तनी दलीलः–
अविनाशी घट घट बसैं सुख कयों विलसत नाहिं;
शुभ निमित्तके योग बीन परे परे विललाहिं. ३६.
अर्थः– निमित्त कहे छे–अविनाशी सुख तो घट घट–दरेक जीवमां वसे छे, तो जीवोने सुखनो विलास–
भोगवटो केम नथी? शुभ निमित्तना योग वगर जीव क्षणे क्षणे दुःखी थई रह्यो छे.
अरे उपादान! जो निमित्तथी सुख नथी अने अविनाशी उपादानथी ज सुख छे एम तुं कहे छे, तो बधा
आत्माना स्वभावमां अविनाशी सुख तो छे छतां केम तेओ ते मेळवी शकता नथी? सारां निमित्त नथी माटे! जो
आत्मामां ज सुख अविनाशी भर्युं होय तो तेने केम न भोगवे? अने जीव बहारमां सुखनां झांवां केम नाखे?
उपादान तो बधाने छे परंतु सारां निमित्त मळे त्यारे सुखी थाय.–आवा निमित्त तरफना अज्ञानीओना प्रश्नो
अनादिना छे, अने उपादाननी ओळखाणना जोरे ते प्रश्नने उडावी देनार ज्ञानीओ पण अनादिना छे.
जेने आत्माना स्वाधीन सुखस्वरूपनी खबर नथी ते एम शंका करे छे के जो सुख आत्मामां ज होय तो
कया जीवने सुख भोगववानी भावना नथी? अने तो पछी ते सुख केम न भोगवे? माटे सुखने खातर सारां
निमित्तो जोइशे. अने ए निमित्तना आधारे ज आत्मानुं सुख छे. मानवदेह, आठ वर्षनो काळ, सारूं क्षेत्र,
निरोगशरीर अने सत् संभळावनार संत पुरुषनो समागम आ बधा जोग होय तो जीव धर्म पामीने सुखी थाय
परंतु जीवने सारां निमित्त नथी मळ्यां तेथी ज सुख नथी अने निमित्तना अभावमां एक पछी एक दुःख भोगवे छे,
माटे सुख लेवामां जीवने निमित्तनी मददनी जरूर छे.–आवी निमित्त तरफनी दलील छे. –३६–
उपरनी दलीलनो उपादान जवाब आपे छेः–
शुभ निमित्त इह जीवको, मिल्यो कंई भवसार;
पै ईक सम्यक्दर्श बिन, भटकत फिर्यो गंवार. ३७.
अर्थः– उपादान कहे छे–शुभ निमित्त आ जीवने घणा भवोमां मळ्युं, पण एक सम्यग्दर्शन विना आ जीव
गमारपणे (अज्ञानभावे) भटकया करे छे.
आ दोहामां निमित्ताधीन द्रष्टिवाळा जीवने गमार कह्यो छे. जे जीवने सम्यग्दर्शन नथी ते गमार छे–
अज्ञानी छे. परमसत्य भाषा छे. श्री सर्वज्ञ भगवानना पक्षथी अने स्वभावनी साक्षीथी अनंत सम्यग्ज्ञानीओ कहे
छे के हे भाई! जीवने सम्यग्दर्शन वगर ज सुख नथी. पोते ज पोताना आखा स्वभावने भूली गयो अने पर साथे
सुख–दुःखनो संबंध मान्यो तेथी ज जीव रखडे छे, अने दुःखी थाय छे. आ अनंत संसारमां रखडता जीवने सारां–
उत्कृष्ट निमित्तो मळ्यां, साक्षात् श्री तीर्थंकर भगवान, तेमनुं समवसरण जेमां इन्द्रो, चक्रवर्ती, गणधरो अने संतो–
मुनिओनां टोळां आवतां एवी धर्मसभा तथा दिव्यध्वनिनो धोधमार उपदेश वरसतो हतो– आवां सर्वोत्कृष्ट
निमित्तो पासे अनंतवार जईने बेठो अने भगवाननी दिव्य वाणी सांभळी छतां पण तुं तारी अंतरनी रुचिना
अभावे धर्म न समज्यो, निमित्तो होवा छतां तें उपादाननी जागृति करी नहि तेथी सम्यग्दर्शन न पाम्यो. भाई रे!
वस्तुस्वभाव ज ज्यां स्वतंत्र छे तोपछी निमित्त तेमां शुं करे? जो जीव पोते पोताना स्वभावनी ओळखाण करे तो
कोई निमित्तो रोकवा समर्थ नथी अने जो जीव पोताना स्वभावनी ओळखाण न करे तो कोई निमित्तो तेने
ओळखाण आपवा समर्थ नथी.
अनंतकाळथी संसारमां रखडतां रखडतां दरेक जीव मोटो राजा थयो अने समवसरणमां बिराजमान
साक्षात् चैतन्यदेव श्री अरिहंत भगवाननी हीराना थाळमां कल्पवृक्षना फळ–फूलथी पूजा करतां इन्द्रोने जोयां अने
पोते