माघः २४७३ः ७७ः
द्रव्य अपेक्षाए तो बधा ज आत्मा सरखा छे; अने पर्याय अपेक्षाए सिद्धभगवान संपूर्ण शुद्ध छे, आ आत्माने
पर्यायमां अशुद्धता छे. सिद्ध भगवानने ज्ञान, सुख इत्यादि गुणोनी पर्याय परिपूर्ण छे अने रागादिनो सर्वथा
अभाव छे, आ आत्माने ज्ञानादि गुणोनी अधूरी पर्याय छे तथा रागादि पण छे. आ रीते. पर्याय अपेक्षाए अंतर
छे.
८०. प्र.–सिद्धने अने आ आत्माने पर्याय अपेक्षाए जे अंतर छे ते अंतर कई रीते टळे?
उ.–पर्याय अपेक्षाए असमानता होवा छतां द्रव्य अपेक्षाए तो आ आत्मा पण सिद्ध समान ज छे; माटे
पर्याय द्रष्टिने गौण करीने शुद्ध द्रव्य द्रष्टिनो आश्रय करतां आत्मानी शुद्ध पर्याय प्रगटे छे. द्रव्य द्रष्टिनो आश्रय
करवाथी प्रथम सिद्ध समान पोताना आत्मानी श्रद्धा प्रगटे छे अने पछी तेमां स्थिरता करतां साक्षात् सिद्धदशा प्रगटे
छे एटले आत्मा पोते सिद्ध थाय छे.
परंतु जीव जो पोताना सिद्ध स्वभावने न माने, न ओळखे अने मात्र पर्याय जेटलो ज पोताने मानी ले
तो ते पर्यायनुं लक्ष छोडीने द्रव्यस्वभावनुं लक्ष करे नहि अने द्रव्यस्वभावना लक्ष वगर अशुद्धता टळे नहि.
सिद्धभगवान पर द्रव्यनुं कांई ज करता नथी, अने पुण्यनी लागणी पण तेमनामां नथी, माटे हुं पण कोई
परद्रव्यनुं कंई ज करतो नथी अने पुण्य ते मारूं स्वरूप नथी.
पर्यायमां विकार छे पण ते मारूं स्वरूप नथी केम के सिद्धने विकार नथी–एम ओळखीने, ते विकाररहित
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता करवाथी विकार टळीने सिद्ध दशा प्रगटे छे. (चालुं...)
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अष्टप्राभृत
प्रवचनोनो टूंकसार लेखांकः ४
वैशाख वद ६ श्री समवसरण वार्षिक प्रतिष्ठा महोत्सव दिन ता. २२–प–४६.
(अंक ३८ थी चालु) दर्शनप्राभृत गाथा–७
(७७) आ अष्टपाहुड शास्त्र भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे रच्युं छे, सर्वज्ञना मार्गनुं आमां कथन छे.
अत्यारे दर्शन प्राभृत वंचाय छे. तेमां आचार्यदेव कहे छे के सम्यग्दर्शन ए ज बधा धर्मनुं मूळ छे. बधा धर्म कहेतां
आत्मानी शुद्धचेतनारूप धर्मना पूर्वे जे चार प्रकार बीजी गाथामां कह्या हता ते समजवा. सर्वज्ञदेवे कहेला सनातन
जैनधर्म सिवाय अनेक प्रकारना कल्पित मतो छे ते सत्य स्वरूप नथी.
(७८) बीजी गाथामां कह्युं हतुं के धर्मनी प्ररूपणा चार प्रकारे छे–
१. वस्तुस्वभाव ते धर्म–आत्मा ज्ञानानंद मूर्ति छे, तेनो स्वभाव ज्ञान–दर्शनमय चेतना छे, ते चेतना
शुद्धतारूपे परिणमे अर्थात् स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–रमणतारूपे परिणमे ते धर्म छे. आत्मा त्रिकाळ शुद्ध चेतना
स्वरूप वस्तु छे अने विकार क्षणिक छे–एवा भेदज्ञानपूर्वक आत्मस्वभावनी प्रतीत अने अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे
अने ते ज वस्तुस्वभावनुं मूळ छे.
२. दस लक्षणरूप धर्म–सम्यग्दर्शनवडे शुद्ध आत्मस्वभावनी श्रद्धा करीने तेनुं ज्ञान अने स्थिरता प्रगट
करीने आत्माने कषाय भावोथी बचावी लेवो ते ज उत्तम क्षमादि धर्म छे. ते उत्तम क्षमादि धर्मो सम्यग्दर्शन वगर
होय नहि. सम्यग्दर्शन वगर द्रव्यलिंगी मुनि थाय अने कोई बाळी मूके छतां क्रोध न करे, सिंह खाई जाय छतां बोले
नहि अने शुभ परिणाम राखे तो पण तेने ‘उत्तम क्षमा’ कहेवाय नहीं. केम के ते सम्यग्दर्शन रहित जीव एम माने
छे के में आ घणुं कर्युं अने शुभपरिणाम राख्या तेथी हवे मने धर्म थशे. जेणे शुभभावने सारा मान्या अने तेनाथी
आत्माने लाभ मान्यो ते जीवने शुभाशुभ रहित शुद्धचैतन्य स्वभाव उपर क्रोध (–अरुचि) छे, तेने अनंतानुबंधी
क्रोध कहेवाय छे. माटे सम्यग्दर्शन ज उत्तम–क्षमादि दस धर्मोनुं मूळ छे.
३. रत्नत्रयरूपी धर्म–पोताना शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान अने चारित्र ते रत्नत्रयधर्म छे, तेनुं मूळ पण
सम्यग्दर्शन ज छे.
४. जीवरक्षारूप धर्म–ज्ञानदर्शन स्वरूप आत्मा छे, तेनी पुण्य–पापना विकारी भावोथी रक्षा करवी एटले के
पुण्य–पापना भावोने आत्मानो स्वभाव न मानवो पण पुण्य–पापथी भिन्न शुद्ध ज्ञानदर्शनमय आत्मस्वभावने
श्रद्धामां, ज्ञानमां अने स्थिरतामां टकावी राखवो ते ज साची जीवरक्षा छे. पर जीवने हुं बचावी शकुं एम मानवुं
तथा पुण्य–पापना परिणामो वडे आत्माने लाभ मानवो ते ज स्व जीवनी हिंसा छे. पर जीवनी रक्षा के हिंसा तो
कोई करी शकता ज नथी, केम के परजीवनां जीवन के मरण ते आ जीवने आधीन नथी. सम्यग्दर्शन वडे पोताना शुद्ध