Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ७८ः आत्मधर्मः ४०
स्वभावने ओळखीने तेने जेटले अंशे विकारथी बचावी ले तेटले अंशे जीवरक्षारूपधर्म छे. आनुं मूळ पण
सम्यग्दर्शन ज छे.
आ रीते सर्वज्ञदेवे कहेला आत्माना बधा धर्मोनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. जेम मूळिया वगर झाड न ऊगे अने
पाया वगर मकान न थाय तेम सम्यग्दर्शन वगर कोई प्रकारनो धर्म होतो नथी–एम बीजी गाथानो सार छे.
(७९) त्रीजी गाथामां कह्युं छे के जीव कदाचित् चारित्रथी रहित होय परंतु जो सम्यग्दर्शन सहित होय तो
ते अल्पकाळे चारित्र प्रगट करीने अवश्य मुक्ति पामशे. परंतु जे सम्यग्दर्शनथी ज भ्रष्ट छे ते तो भष्टमां भष्ट छे,
तेने मुक्तिनी प्राप्ति नथी. जेम दोरो परोव्या वगरनी सोय हाथ आवे नहि, पण दोरो परोवेली सोय होय तो ते
खोवाय नहि, तेम जे जीवोए पोतानी पर्यायमां सम्यग्दर्शनरूपी दोरी परोवी छे तेवा जीवो अल्पकाळे मुक्त थाय छे
अने संसारसमुद्रमां डुबता नथी. पण जे जीवो सम्यग्दर्शन रहित छे तेओ बाळतप अने बाळव्रत करतां छतां पण
मुक्ति पामता नथी अने संसारसमुद्रमां रखडे छे.
(८०) कोई जीव घणा शास्त्रो भणे पण जो सम्यक्त्त्वरत्नथी भ्रष्ट होय तो ते आराधना रहित होवाथी
संसारमां ज भमे छे. शास्त्रोमां कांई आत्मा रहेलो नथी. आत्मा चैतन्यमय स्वतंत्र छे, तेनी ओळखाण वगर
शास्त्रो भणे तोपण ते मिथ्याद्रष्टि छे अने संसारमां रखडे छे. आत्मा स्वतंत्र छे. रागनो एक अंश पण आत्माना
स्वभावमां नथी, पर्यायमां जे रागद्वेष थाय ते पोतानी वर्तमान लायकातथी पोताना ज दोषथी थाय छे, कर्म वगेरे
कोइ पर द्रव्य दोष करावनार नथी–एवुं जेने स्वतंत्रतानुं ज्ञान नथी ते गमे तेटलां शास्त्रो भण्यो होय पण तेनां
भणतर खोटां छे. एक मात्र सम्यग्दर्शन वगर तेना संसारनो अंत आवतो नथी, ए चोथी गाथानो सार छे.
(८१) त्यार पछी पांचमी गाथामां कह्युं के आत्मानी श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन वगर कोई जीव ऊग्र तप
आचरे तो पण ते ‘बोधि’ एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमय पोतानो स्वभाव तेने पामतो नथी. सम्यग्दर्शन
वगर करोडो वर्ष तप करे तोय स्वरूपनी प्राप्ति न थाय. सम्यग्दर्शन वडे सत्य स्वभावनो स्वीकार कर्या वगर जीव
जे करे ते बधुं खोटुं ज होय. दिगंबर मुनि थाय, पंच महाव्रतनुं कडकपणे पालन करे, क्रोडो वर्ष तप करे अने देव–
गुरु–शास्त्रने माटे प्राण आपे तो पण–जो निरालंबी आत्मानुं साचुं भान न होय तो ते जीवोने धर्मनो लाभ जरा
पण थतो नथी.
(८२) छठी गाथानो सार ए छे के–आत्माना भान सहित जीवने बधुं ज सफळ छे. सम्यग्द्रष्टि जीवने
ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि गुणो वर्द्धमान छे. जे पुरुष सम्यकत्व, ज्ञान, दर्शन अने वीर्यथी वृद्धिगत छे अने आ
कलियुगना कलुषित पापोथी रहित छे ते जीवो थोडा ज काळमां उत्कृष्ट ज्ञानी–केवळज्ञानी थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने
ज्ञानादि बधुं सफळ छे अने मिथ्याद्रष्टिने ज्ञान, व्रतादि बधुं निष्फळ छे. निर्विकार अबंध ज्ञानस्वभाव छे तेनी
प्रतीतना जोरे सम्यग्द्रष्टिने क्षणे क्षणे आत्मशुद्धि वधे छे, विकार घटे छे अने पूर्व कर्मो झरी जाय छे; सम्यग्दर्शन पूर्वक
ज्ञान तथा चारित्र प्रगट करी अल्पकाळमां केवळज्ञानी थाय छे. आ पंचमकाळमां थयेला विराधक जीवो द्वारा जिन
मार्गथी विरुद्ध जे अनेक प्रकारना कुपंथो नीकळी पडया छे तेनी कुवासना जे जीवने बेठी नथी अने पोताना शुद्ध
सम्यक्त्वने जेणे निर्मळपणे टकावी राख्युं छे ते जीव अल्पकाळमां तीर्थंकरादि पदवी पामीने मोक्ष पामशे. जिन
मार्गना नामे, देव–गुरु–शास्त्रनुं स्वरूप जिनमार्गथी विरुद्ध कल्प्युं ते कलिकाळनी कुवासना छे; अने कर्मोने लईने
आत्माने दोष थाय एम माननार पण मिथ्याद्रष्टि छे.
(८३) वीतरागी सर्वज्ञ जिनदेव, वीतरागी निर्ग्रंथ साधक संतमुनि अने वीतरागी सत्शास्त्रोने जेओ नथी
ओळखता अने नथी मानता तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. वळी श्री कुंदकुंदप्रभु कहे छे के–जेने निज शुद्धात्मतत्त्वनी प्राप्ति
थई नथी अने सत्देव–गुरु–शास्त्रनो पण जे विरोध करे छे एवा जीवोने वंदन कर्ये, तथा साधु–श्रावक के सम्यग्द्रष्टि
मान्ये अनंत संसारनुं कारण एवुं मिथ्यापाप लागे छे. जिनमतमां सत्य असत्यनो विवेक तो पहेलां ज करवो पडशे.
श्री कुंदकुंदभगवाने आ कथन भय देखाडवा माटे कर्युं नथी परंतु सम्यग्दर्शननुं स्वरूप समजाव्युं छे. सम्यग्दर्शनमां
एटलुं जोर छे के असत्यनो अंश पण तेने स्वीकार्य नथी. तेथी अखंड सत्ने बेधडकपणे जणावीने आ दर्शनपाहुडमां
सत्य मार्गने खुल्लो मूकयो छे.