Atmadharma magazine - Ank 040
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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माघः २४७३ः ७९ः
(८४) ‘जैन’ कहेवाता जीवोमां पण अत्यारे साचां ज्ञानश्रद्धानने एक बाजु मूकीने मात्र बाह्य
क्रियाकांडमां धर्म माननारो मोटो भाग छे. अरेरे! हजी स्वरूप शुं तेनी श्रद्धानुं तो ठेकाणुं नथी त्यां व्रत अने पडिमा
वगेरे मानी लेनारा जीवो घणा मळी आवे छे, परंतु स्वभावनी साची श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन तो लाखोमां कोईक
विरल जीवने होय तो! बाकी तो आत्मानी स्वसन्मुख थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान कर्या वगर कोई घणा शास्त्रो भणीने
पंडित नाम धरावे, के कोई पडिमा, व्रत धारीने त्यागी नाम धरावे–पण स्व आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान वगर ते
मिथ्याद्रष्टि छे.
(८प) जेओ कुदेवादिने माने छे तेओ तो मिथ्याद्रष्टि छे ज, परंतु साचा देव–गुरु–शास्त्रने माननारा
जीवोमां पण आत्माना ज्ञान–श्रद्धानने भूलीने जेओ बाह्य क्रियाकांडमां धर्म माने छे तेओ पण मिथ्याद्रष्टि छे.
शुद्धात्माना श्रद्धा–ज्ञान कर्या पछी जेम जेम जीव शुद्धता वधारे छे तेम तेम राग टळतो जाय छे अने राग टळतां ते
भूमिकाने योग्य बाह्य त्याग पण सहज पणे होय छे. अमुक भूमिकाए अमुक वस्तु खपे अने अमुक न खपे–ए तो
सहजमार्ग छे; ज्ञानीने ते बाह्यनो हठाग्रह होतो नथी. जे जीव बाह्य त्याग उपरथी के व्रत–पडिमा उपरथी ज
आत्मानी शुद्धतानुं माप काढे छे पण अंतरंग श्रद्धा–ज्ञानने जाणतो नथी ते बहिरद्रष्टि अथवा तो संयोगद्रष्टि छे.
हजी पोतानो शुद्ध आत्मस्वभाव केवो छे तेनी ओळखाण नथी अने चोथी भूमिकाना सम्यग्दर्शननुं पण भान नथी,
त्यार पहेलां तो पांचमी अने छठ्ठी भूमिकाने योग्य बहारनी पडिमा अने त्याग वगेरे करवा मांडे छे, परंतु
सम्यग्दर्शन वगरना ते जीवो साचा त्यागी के साचा व्रती नथी–एम श्री कुंदकुंद भगवाननो पोकार छे.
(८६) जेणे सम्यग्दर्शन वडे परिपूर्ण आत्मस्वभावने प्रतीतमां लीधो छे ते अल्पकाळे पूर्णता प्रगट करी
मुक्ति पामशे. परंतु ते जीवो सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या वगर शास्त्राभ्यास अने त्यागमां धर्मीपणुं मानी बेठा छे
तेओए साचुं तत्त्व समजवुं मुश्केल थई पडयुं छे. आचार्यदेव तो कहे छे के ए कलिकालनी वासना छे, केमके आ
काळमां विराधक वृत्तिना जीवोनी मुख्यता छे. जेम मोटा समूहमांथी एक हंस जुदो पडी जाय अने अजाण्या देशमां
आवी पडे, तेम अत्यारे आ भरतमां कोई विरल धर्मात्मा होय छे. बहु थोडा जीवो एवा छे के जेमना अंतरमां
कलिकाळनी वासना बेठी नथी. सत् समजनारा जीवो विरल होय छे पण जे होय छे तेओ नक्कर द्रढतावाळा होय छे,
त्रणकाळ त्रणलोक प्रतिकूळ थाय तोपण तेओ सत्थी च्यूत थता नथी अने विपरीतपणे मानता नथी. पंचमकाळना
जे जीवो कुमार्गमां नथी पडया, अने पोताना सम्यक्त्वने स्वप्ने पण जेणे मलिन कर्युं नथी–एवा धर्मात्मा जीवोने
वर्तमान त्याग–पडिमा न होय छतां पण ते एक–बे भवमां मुक्ति पामशे. ए सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य छे.
कुंदकुंदाचार्यदेवे आ अष्टपाहुडमां जे सत्ने जाहेर कर्युं छे ते धीरा थईने मध्यस्थपणे समजवुं. त्रणकाळमां आ वात
फरे तम नथी. आखी दुनियाथी विरोधी छे परंतु वस्तु स्वभाव साथे तेनो मेळ छे. जो वस्तुनो स्वभाव अने
केवळीनुं ज्ञान फरे तो आचार्यदेवनी आ वात फरे.
आ रीते छठ्ठी गाथानो सार कह्यो.
(८७) हवे आ सातमी गाथा आजना मंगळ दिवसे शरू थाय छे. आ गाथामां कहे छे के–जे पुरुषना
हृदयमां सम्यक्त्वरूपी जळनो प्रवाह निरंतर प्रवर्ते छे तेने कर्मरजनुं आवरण लागतुं नथी अने पूर्वे बंधायेला कर्मो
पण नष्ट थाय छे.
(८८) आत्मा चैतन्यभाव वडे मात्र ज्ञाता–द्रष्टा छे, देहादि परद्रव्योनो निमित्तपणे पण हुं कर्ता नथी. अने
मारो ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव विकारनो पण कर्ता नथी. बधा भावोथी जुदुं रहीने ज्ञान बधाने जाणे छे–आम जेने
भेदज्ञान छे तेना हृदयमां सम्यक्त्वरूपी जळनो प्रवाह निरंतर वहे छे, तेथी तेने कर्मनो मेल लागतो नथी, पण
सम्यक्त्वना जोरे पर्याये पर्याये शुद्धता वधती जाय छे.
(८९) अहो! जगतने आ सम्यग्दर्शननो महिमा ख्यालमां ज नथी आवतो, अने बहारमां ज व्रत–तपादि
मानीने संतोषाई जाय छे, पण ते बहिरात्मद्रष्टि छे. ‘हुं आत्मा शिवस्वरूप ज छुं, मारो स्वभाव कदी विकार थयो
नथी अने परद्रव्यो साथे मारे कांई संबंध ज नथी,’–आम स्वभाव साथेनो संबंध जोडीने अने पर साथेनो तोडीने
अंतरद्रष्टिथी जुए तो सम्यग्दर्शन थाय. उपवास वगर अने व्रत–त्याग वगर एकला सम्यग्दर्शननुं ज अहीं जोर
आप्युं छे, केम के लोको ते मूळ ज भूली गया छे. व्रत, उपवासादि वगरनुं